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[ ३२१ ] संघाचारभाष्य वृत्तिमें दशत्रिक सहित श्रावकके चैत्य'वन्दनकी विधि कथाओं सहित कही है जिसमें सातमीत्रिकमें यतनापूर्वक तीनवार भूमि प्रमार्जन करके इरियावही पूर्वक चैत्यवन्दम करने सम्बन्धी पुष्कली श्रावककी कथा कही है उसीके भी आगे पीछेके सब पाठको छोड़ करके थोडासा अधरा पाठ न्यायां में 'जैन० ना० पुस्तकके' पृष्ठ ३१ में लिखके ग्रन्थकार महाराजको गुरुविरोधीका दूषणके अधि. कारी ठहरा करके ग्रन्थकार महाराजके विरुद्धार्थमें सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करी सो भी उत्सत्र भाषण है इसका भी निर्णय संपूर्ण पाठ सहित ग्रन्थकार महाराजके अभिप्राय पूर्वक 'आत्मभ्रमो के' पृष्ठ ४८ से ६८ तक छपगया है।
५ पांचमा-श्रीतपगच्छनायक श्रीदेवेन्द्रसरिजी कृत श्रीधर्मरल प्रकरणको वृत्तिमें स्वाध्याय करने सम्बन्धी विस्तारसे पाठ है जिसकी भी एक गाथा न्यायां ने 'जैन० ना० पुस्तकके' पृष्ठ ३३ के मध्यमें लिखके उसी गाथामें दो जगह दो मात्रा भी जादा लगाके अर्थ भी उलटा करा और अपने पूर्वजकोही विसंवादीका दूषण लगा करके वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थमें सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापी सो भी महान् उत्सत्र भाषण है इसका भी विस्तारसें निर्णय 'आत्म० के पष्ठ ६९ सें 39 तक छपगया है।
६ छठा-श्रीरत्नशेखरसूरिजी कृत श्रीश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रकी वृत्तिमें आवश्यकचूर्णि वगैरह अनेक शास्त्रोंके प्रमाणानुसार सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासे कही है उसी शास्त्रोंकी विधि मुजब प्रावक
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