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[ ३५४ ] झूठे ठहरा करके भावदया दिखाना सो तो प्रत्यक्ष महा मिथ्या है। और भावदयाका स्वरूप जाने बिना सातवें महाशयजी भावदया वाले बनते हैं सो भी तोतेकी तरह तात्पर्य्य समझे बिना रामराम पुकारने जैसा है क्योंकि सातवें महाशयजी भावदयाका स्वरूपही नही जानते हैं इसलिये अबमें पाठकवर्गको भावदयाका स्वरूप संक्षिप्तसे दिखाता हूं
श्रीजैनशास्त्रों में भावदया उसीको कहते हैं कि-प्रथमतो चतुर्गतिरूप संसारमें अनन्त कालसे नरकादिमें परिभ्रमणकी वेदना वगैरह स्वरूपको जान करके संसारकी निवृत्तिके लिये श्रीजिनेन्द्र भगवानोंका कहा हुवा आत्महितकारी धर्मको श्रद्धापूर्वक अङ्गीकार करके श्रीजिनेन्द्र भगवानोंके कहने मुजबही धर्मकी परूपना करे और मोक्षकी इच्छासे उसी मुजबही प्रवते तथा दूसरों को प्रवर्त्तावे और सब संसारी प्राणियोंको भी ऐसेही होनेकी इच्छा करे सोही उत्तम पुरुष भावदया कर सकता है, परन्तु सातवें महाशयजी तो उत्सूत्र भाषणोंसें संमार वृद्धिका भय नहीं करने वाले दिखते हैं क्योंकि श्रीजिनेन्द्र भगवानेांने तो अधिक मासको गिनतीमें लेने का कहा है तथापि सातवें महाशय. जी अधिक मासको गिनती में प्रमाण करने की श्रद्धा रहित होनेसे उत्सूत्रभाषणरूप अधिक मासको गिनतीमें लेनेका निषेध करते हैं इसलिये सातवें महाशयजी काशीनिवासी श्रीधर्मविजयजी श्री जिनेन्द्र भगवानोंके कहने मुजब वर्तमे वाले नहीं है किन्तु श्रीजिनेन्द्र भगवानोंके विरुद्ध अपनी मतिकल्पनासें कुयुक्तियों करके बालजीवोंको मिथ्यात्व
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