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[ ३५८ ] संसारवृद्धिके फल तो मिलने का दिखता है इस बातको श्रीजैनशास्रोंके तत्त्वज्ञ पुरूष अच्छी तरहसे विचार लेवें : .. और भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठकी ८।।१० पंक्तियों में लिखा है कि ( अधिक मासको लेखामें गिनकर पर्युषणा पर्व करनेवाले महानुभावोंको नीचे लिखे हुए दोषों पर पक्षपात रहित विचार करनेकी सूचना दी जाती है )।
इस लेखको देखकर मेरेको वड़ेही खेदके साथ लिखना पड़ता है कि सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीने श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको बिना समझे ऊपरके लेखमें इन्होंने श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों की और खास अपनेही गच्छके पूर्वाचार्योंकी आशातनाका कारण रुप संसार वृद्धिके हेतुभूत खूबही अज्ञतासें अनुचित लिखा है क्योंकि अनन्ते काल हुवे श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंने अधिकमासको लेखामें गिन करही पर्युषणा करते आये हैं तथा वर्तमान इस पञ्चम कालमें भी श्रीजिनाज्ञाके आराधक सबीही आत्मार्थी जैनाचायाने अधिक मासको लेखामें गिन करही पर्युषणा करी है और आगे भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराज जो जो होवेंगे सो सबीही अधिक मासको गिनतीमें ले करही पर्युषणा करेंगे और अनेक आस्त्रोंमें अधिकमासको गिमतीमें लेकरही पर्युषणा करनी लिखी है इसलिये अधिक मासको गिनतीमें लेकरके जो पर्युषणा करते हैं सोही श्रीजिनाज्ञाके आराधक है और अधिक मासको गिनतीमें छोड़ करके पर्युषणा करते हैं सोही श्रीजिनाज्ञाके विराधक
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