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[ ३१२ ] आलोचना तो स्वयं मंजूर हो चकी और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंका कहा हुवा तथा प्रमाण भी करा हुवा अधिक मासको उत्सूत्र भाषण करके निषेध करते हैं और प्रमाण करने वालोंको दूषण लगाते हैं सो पुरुष अधिक मासकी आलोचना नही करे तो उन्होंके मति कल्पनाकी बातही जुदी है परन्तु श्रीतीर्थङ्करगणधरादि महाराजांकी आज्ञा. नसार अधिक मासकी गिनती प्रमाण करने वालोंको तो अवश्य ही अधिक मासकी आलोचना करना उचित है। इतने पर भी जो नहीं करने वाले हैं सो श्रीजिनाज्ञाके उत्थापक हैं।
और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांकी भाव परंपरानुसार चंद्रसंवत्सरका और अभिवर्द्धित संवत्सरका यथोचित अवसर पर जुदा जुदा अर्थ ग्रहण करके सांवत्सरीमें क्षामणा करनेकी अनुक्रमे अखंडित मर्यादा चली आती है इसलिये पर्वाचार्यों ने अधिक मासकी गिनती करनेकी तो सभी जगह व्याख्या करी है परन्तु क्षामणा सम्बन्धी संवत्सरशब्द लिखा है जिसका कारण यही है कि अधिक मास प्रमाण हुआ तो क्षामणे करने का तो स्वयं प्रमाण हो चुका, जब सम्वेगी साधु मान लिया, तब महाव्रतधारी तो स्वयं सिद्ध हो चुका। जब श्रीजिनेश्वर भगवान्की मूर्तिको श्रीजिन सदृश मान्य करी तब उसीको वंदना पजना तो स्वयं सिद्ध हो गया। जब व्याख्यान बांधना मंजूर कर लिया, तब जानकार तो स्वयं सिद्ध होगया। ऐसे ऐसे अनेक दृष्टान्त प्रत्यक्ष हैं सो विशेष पाठकवर्गभी विचार सकते हैं।
और श्रीमशास्त्रोंके तात्पर्यको नहीं जानने वाले
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