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साणे भद्दवएवा, अहिंगमासे चाउमासीओ ॥ परमास
इमे दिणे, पज्जोसवणा कायवा न असीमे, इति
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प्रमाण
भावार्थ:- :- श्रावण और भाद्रपद मास अधिक होतो भी आषाढ़ चौमासीसे पचासमै दिन पर्युषणा करना चाहिये परन्तु अशीमें दिन नही करना । इस जगह सज्जन पुरुषोंको विचार करना चाहिये कि ऊपरोक्त तीनों शास्त्रों के पाठ आगमानुसार तथा युक्ति पूर्वक होने से छठे महाशयजीको प्रमाण करने योग्य थे तथापि गच्छका पक्षपातके और पण्डिताभिमानके जोरसें ऊपरोक्त शास्त्रों के पाठोंको न करते हुवे श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठको तथा श्रीवृहत्कल्पवर्णिके पाठको छुपाकरके मायावृत्तिसें श्रीजिनपति सूरिजी की समाचारीके पाठ पर अपने विद्वत्ताकी चातुराई दिखाई है कि ( यही तो विवादास्पद है कि श्रीजिनपति सूरिजीनें समाचारीमें जो यह पूर्वोक्त हुकमजारी किया है कौनसे सूत्रके कौनसे दफे मुजिब किया है ) छठे महाशयजीके इस लेख पर मेरेको बड़ाही आश्चर्य सहित खेदके साथ लिखना पड़ता है कि श्रीवल्लभविजयजीको अनुमान २२ । २३ वर्ष दीक्षा लिये हुए है तथा कुछ व्याकरणादि भी पढ़े हुए सुनते हैं परन्तु इस जगह तो श्रीवल्लभविजयजीनें अपनी खूब अज्ञता प्रयट करी हैं क्योंकि श्रीनिशीथसूत्र के लघु भाष्य में, १ तथा वृहद्भाष्यमें २ और चूर्णि में ३ श्रीवृहत् कल्पसूत्र के लघु भाष्य में ४ तथा बृहत्भाष्यमें ५ और चूर्णिमें ६ श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रमें 9 तथा चूर्णिमें ८ श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रमें ९ तथा तद्वृत्ति में १० और श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रकी वृत्ति में १९ इत्यादि अनेक शास्त्रों में कहा है कि पचास दिने अवश्यही पर्युषणा