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[ ३१६ ]. महाराजांकी आज्ञानुसार पूर्वधरादि श्रीप्राचीनाचार्योंने तथा सबीही गच्छोंके पूर्वाचार्योंने और श्रीतपगच्छके भी प्रभाविक पुरुषोंने अनेक शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक सामा. यिकाधिकार प्रथम करेमिझतेका उच्चारण किये बाद पीछेसें इरियावही कही है मो आत्मार्थियोंको प्रमाण करने योग्य है तथापि श्रीतपगच्छके वर्तगानिक प्रायः करके सबीही श्रावक महाशयों को ऊपर मुजब वर्तना तो दूर रहा परन्तु ऊपर मुजब श्रद्धा भी नहीं रखते है और उलटे उन शास्त्रोंके विरूद्वार्थ में अपनी मतिकल्पनासें वर्तते हैं उन्होंको श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके आराधक तथा खास अपनेही गच्छके प्रभाविक पुरुषोंकी आज्ञाके आराधक और पञ्चाडीके शास्त्रोंपर श्रद्धारखनेवाले कैसे कहे जावें और अनेक शास्त्रोंके प्रत्यक्ष प्रमाणको विधिको छोड़ करके अन्ध परम्परासें गड्डरीह प्रवाहवत् उन्ही शास्त्रोंके विरुद्ध वर्तने वालोंकी क्रिया भी कैसे सफल होगा-और श्रीजैनशास्त्रोंके एक पद पर अथवा एक अक्षर पर भी जो पुरुष श्रद्धा नही रखे वह प्राणी जमालि की तरह निन्हव, मिथ्यादूष्ठि कहा जाता है सो तो अनेक शास्त्रोंमें प्रसिद्ध बात है तथापि श्रीतपगच्छके वर्तमानिक जो जो मुनि महाशय और श्रावक महाशय ऊपरोक्त अनेक शास्त्रों पर तथा उन शास्त्रोंके कर्ता श्रीजैनशासनके प्रभाविक पुरुषोंके वचनों पर और खास अपनेही गच्छके पूर्वज पुरुषोंके वचनों पर श्रद्धानहीं रखते हैं उन्होंको-पक्षग्राही, दृष्टिरागी, शास्त्रोंकी श्रद्धा रहितके सिवाय और सम्यक्त्वी कौन कहेगा सो तत्त्वग्राही पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ;
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