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! २०२ । दान, पुण्य, परोपगार, सात क्षेत्रमें द्रव्यखर्चना, जीव दया, देवपूजा, गुरुवन्दनादि देवगुरुभक्ति, साधर्मिकवात्सल्य, विनय, वैयावच्च, आत्मसाधनरूप स्वाध्याय, ध्यानादि, श्रावकके और धर्मोपदेशका व्याख्यानादि साधुके उचित जो जो शुभकार्य है उन्ही शुभकार्योंकों अधिक मासको नपुंसक कहके त्याग देनेका चारों महाशयोंने उपदेश किया होगा। भक्तजनोंको त्यागनेका नियम भी दिलाया होगा, आपने भी त्यागे होवेंगें और अधिक मासको नपुंसक कहके शुभकार्य चारों महाशय स्यागनेका ठहराते है इससे अशुभ कार्योका ग्रहण होता है इसलिये उपरोक्त कार्योसे विरुद्ध याने अधिक मामको नपुंसक जानके सर्व शुभकार्य त्यागते हुए--निन्दा, ईर्षा, झगड़ादि अशुभकार्य करनेका चारों महाशयोंने उपदेश किया होगा। दूष्टि रागियोंसे करानेका नियम भी दिलाया होगा और अपने भी ऐसे ही किया होगा। तब तो ( अधिक मासमें सर्वशुभकार्य त्यागनेका ) ज्योतिषशास्त्रका नामसें चारों महाशयोंका लिखके ठहराना उचित ठीक होसके परन्तु जो अधिक मासमें निन्दा ईर्षादि अशुभकाऱ्या त्यागके देवगुरुभक्ति वगैरह शुभकार्य चारों महाशयोंने करनेका उपदेश दिया होगा भक्तजनोंसे करानेका नियम भी दिलाया होगा और अपने भी उपरके अशुभ कार्योंका त्यागकरके शुभकार्योंको किये होवेंगे तबतो अधिक भासमें ज्योतिष शास्त्रका नाम लेकरके सर्व शुभकार्य त्यागनेका ठहराना चारों महाशयोंका भोले जीवोंको भ्रममें गेरके मिथ्यात्व बढ़ाने के सिवाय
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