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[२५४ ]
बालुओसाधु विगेरे घणाक जीवो अनन्त संसारी पयाले कह्युछे के —— उत्सूत्तभासगाणं, बोहिनासो अनंत संसारो । पाण ए वि धिरा उत्सुक्तं ता न भासति ॥ १ ॥ तित्ययरं पवयण सूअं, आयरिअ गणहरं महट्ठीअ । आसायंतो बहुसो, अनंत संसारिओ होई ॥ २ ॥ उत्सूत्रना भाषकने बोधिबीजनो नाश थायछे अने अनन्त संसारनी वृद्धिथायले माटे प्राणजतां पण धीरपुरुषो तत्सूत्र वचन बोलता नथी तीर्थङ्कर, प्रवचन [ जैनशासन ] ज्ञान, आचार्य, गणधर, उपाध्याय, ज्ञानादिकथी महर्द्धिकसाधु, साधु ए ओनी आशातना करतां प्राणी घणुकरी अनन्त संसारी थायले ।
और सुप्रसिद्ध युगप्रधान श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी महाराजने श्रीआवश्यकभाष्य [ विशेषावश्यक] में कहा है यथा -- जे जिनवयणु तिम्ने, वयणं भासन्ति जे उ मन्नति । सम्मदिठीणं तं दंसणपि संसार बुद्धि करंति ॥ १ ॥
भावार्थ:- जो प्राणी श्रीजिनेश्वर भगवान् का वचनके विरुद्धवचन [उत्सूत्र ] भाषण करता होवे और उसीको जो मानता होवे उस प्राणीका मुख देखना भी सम्यक्त्वधारियोंको संसार वृद्धि करता है ॥ १ ॥
अब आत्मार्थी विवेकी सज्जन पुरुषोंको निष्पक्षपातकी दीर्घदृष्टि विचार करना चाहिये कि उत्सूत्र भाषण करने वाला तो संसारमें रुले परन्तु उत्सूत्र भाषकका मुख देखनेवाले अर्थात् उस उत्सूत्र भाषक सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट, दुष्टाचारीको श्रद्धापूर्वक वन्दनादि करने वालोंको भी संसार की वृद्धिका कारण होता है तो फिर इस वर्तमान पञ्चम काल में उत्सूत्र भाषकोंको परमपूज्यमानके उन्ही के कहने
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