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[ २८५ ] आपके गच्छके आचार्यका लेख प्रमाण नही करेंगे जिससे भी वृथा वाद विवादसें मिथ्यात्व बढ़ता रहेगा और सत्य असत्यका निर्णय भी नही हो सकेगा और दम्भप्रियजी अनेक गच्छोंके आचार्योंका लेखको प्रमाण करते हैं परन्तु श्रीखरतरगच्छ के आचार्यका लेख प्रमाण नहीं करते हैं यह भी तो प्रत्यक्ष अन्यायकारक हठवादका लक्षण है इसलिये दम्भप्रियेजी वगैरह महाशयोंसे मेरा यही कहना है कि
श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महारजोंकी परम्परा मुजब, पञ्चाङ्गीके प्रमाण पूर्वक कालानुसार, न्यायकी युक्ति करके सहित श्रीखरतरगच्छके आचार्योका तो क्या परन्तु सब गच्छके आचार्योंका लेखको प्रमाण करना सोही आत्मार्थी मोक्षाभिलाषी सज्जनोंको परम उचित है।
वैसेही इस ग्रन्थकारने भी श्रीतपगच्छके श्रीधर्मसागर जी तथा श्रीजयविजयजी और श्रीविनयविजयजी इन तीनों महाशयोंके शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक लिखित पाठोंको इसीही ग्रन्थके आदिका भागमें पृष्ठ ९ । १० । ११ में लिखे है और उसीका भावार्थः भी पृष्ठ १२ से १५ तक लिखके उसीका तात्पर्य्यको पृष्ठ १६ में प्रमाण किया हैं (और इन तीनों महाशयोंने प्रथम अपने लिखे वाक्यार्थको छोड़के गच्छ कदाग्रहका मिथ्या पक्षको स्थापन करनेके लिये उत्सूत्र भाषणरूप अनेक बातें लिखी है जिसकी समीक्षा भी शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक इसीही ग्रन्यके पृष्ठ ६८ से १५० तक उपरमें छप गई है ) और भी श्रीतपगच्छके अनेक आचार्यों के लेख प्रमाण करने में आते हैं जैसे इस ग्रन्थकारने श्रीतपगच्छके आचार्योके शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक लेखोंको
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