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[ २६९ युक्त श्रीखरतरगच्छ वालोंकी सत्य बातोंको प्रमाण करके अपनी कल्पित बातोंको छोड़ दो और श्रीखरतरगच्छवालों पर मिथ्या आक्षेप जो आपने उत्सूत्र भाषण करके करा है तथा श्रीबुद्धिसागरजी पर जो जो अन्यायसै अनुचित लेख लिखके जैनपत्र में प्रसिद्ध कराया है जिसकी क्षमा मांगकर उत्सूत्र भाषणका मिथ्या दुष्कृत दो और अपनी भूलको पिछीही जैन पत्र में प्रगट करके सुखशान्तिसें संप करके बत्तों तब दोनुं गच्छके संप रखने सम्बन्धी आपका लिखना सत्य हो सकेगा पर तु जब तक छठे महाशयजी आपके बिना विचारके करे हुए अनुचित कार्योंकी आप क्षमा नही मांगोंगे और सत्य बातोंका ग्रहण भी नही करते हुए अपनी कल्पित बातोंके स्थापन करनेके लिये जो वार्ताका प्रकरण चलता होवे उसीको छोड़के अन्यायके रस्तेसे अन्यान्य अनुचित बातोंको लिखके विशेष झगड़ा बढ़ाते रहोंगे तब तो दोनुं गच्छके संप रखने सम्बन्धी आपका लिखना प्रत्यक्ष मायावृत्तिका मिथ्या है और भोले जीवोंको दिखाने मात्रही है अथवा लिखने मात्रही है सो विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे और दोनुं गच्छके आपसमें वादविवादके कारणसे दबे हुए जैनशासनके धेरियोंका जोर होनेसे मिथ्यात्व वढ़नेका छठे महाशयजी जो आपको भय लगता होवे तो आपनेही प्रथम जैनपत्र में शास्त्रानुसार चलनेवालोंको मिथ्या दूषण लगाके उत्सूत्र भाषणसें झगड़ा खड़ा करा और पुनःपुनः ( दीर्घकाल चलने रूप ) जैन पत्रमें फैलाया है जिसको पिछीही अपने हाथमिथ्या दुष्कृतसे क्षमाके साथ अपनी भूलको जैन .
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