________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[ २३० ] ही बोला जाता है इसका विशेष निर्णय सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा करने में आवेगा;
और शीतकाल हो तथा उष्ण काल हो भथवा वर्षाकाल हो परन्तु लौकिक पञ्चाङ्गमें जो अधिकमास होगा उसी कालमें अवश्य ही गिनतीमें करके प्रमाण करना यह तो स्वयं सिद्ध न्याययुक्ति की बात है जैसे वर्षाकालमें श्रावण भाद्रपदादि मास वढ़नेसें गिनतीमें लिये जाते है तैसे ही शीतकालमें तथा उष्ण कालमें भी जो माप्त बढ़े सो ही गिनाजाता है इस लिये न्यायरनजीने उपरका लेखमें शीतकालमें और उष्णकालमें अधिक मासको गिनती में नही लानेका लिखती बख़्त विवेक बुद्धिसे विचार किया होता तो मिथ्या भाषणका दूषण नही लगता सो पाठकवर्ग विचार लेना,
और इसके अगाड़ी फिर भी भ्यायरत्नजीने अपनी विद्वत्ताकी चातुराई को प्रगट करने के लिये लिखा है कि [ अगर कहा जाय कि पचाशदिनकी गिनती लिइजाती है तो पिछले ७० दिनकी जगह १०० दिन होजायेगे उधर दोष आयगा संवत्सरीके बाद 90 दिन शेष रखना यह बात समवायाङ्ग सूत्रमें लिखी हैं उसका पाठ-वासाणं सवीसइराइ मासे वइकन्ते सत्तरिराइदिएहिं सेसेहिं,--इस लिये वही प्रमाणवाक्य रहेगा कि अधिक मास कालपुरुषकी चोटी होनेसे गिनतीमें नही लेना] इस लेखपर मेरेको बड़े अफसोसके साथ लिखना पड़ता है कि न्यायरत्नजीको विद्वत्ताकी चातुराई किस जगहमें चली गई होगी सो अपने मायके विद्यासागरादि विशेषणेको अनुचितरूप कार्यकरके उपरके
For Private And Personal