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[ २३९ ]
तथा और भी न्यायरत्नजीको थोड़ासा मेरा यही कहना है कि अधिकमासको आप कालपुरुषकी चोटी जान कर गिनती में नही लेनेका ठहराते हो तब तो दो आषाढ़, दो श्रावण दो भादवेका लिखना आपका वृथा हो जावेगा और दो आषाढ़ादि मासोंको लिखते हो तथा उसी मुजब वर्तते हो तब तो कालपुरुषकी चोटी कहके अधिकमासको गिनती में निषेध करते हो सो आपका वृथा है और दो आषाढ़, दो श्रावण, दो भादवे लिखना सब धर्म और कर्मका व्यवहार भी दोनु मासका करना फिर गिनती में नही लेना यह तो कभी नही हो सकता है इसलिये दोनु मासका धर्म और कर्मका व्यवहारको मान्य करके दोनुं मासको गिनती में लेना सो ही न्यायपूर्वक युक्तिकी बात है तथापि निषेध करना धर्मशास्त्रोंके और दुनियाके व्यवहारसे भी विरुद्ध है इस लिये इसका मिथ्या दुष्कृत ही देना आपको उचित है नहीं तो पूर्वापर विरोधी विसंवादी वाक्यका जो विपाक श्रीधर्मरत्नप्रकणको वृत्ति में कहा है सो पाठ इन्ही पुस्तक के पृष्ठ ८६ ८७ ८८ में छपगया है उसीके अधिकारी होना पड़ेगा सो आप विद्वान् हो तो विचार लेना ;
और दो आषाढ़ होनेसे दूसरे आषाढ़में चौमासी कृत्य किये जाते है जिसका मतलब न्यायरत्नजीके समझमें नहीं आया है सो इसका निर्णय सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजी के नामकी समीक्षा में करने में आवेगा और दो भादवें होनेसें दूसरे भादवेंमें पर्युषणापर्व करना न्याय युक्त न्यायरत्नजी ठहराते है परन्तु शास्त्रसम्मत न्याय युक्त नही है क्योंकि
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