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[ २०० ] चौमासामें और अधिक मासादिमें धर्मकार्य करते होवेंगे तब तो 'हरिशयनेऽधिके मासे इत्यादि उपरका श्लोक नारचन्द्रके दूसरे प्रकरण का लिखके अधिक मासादि जितने स्थान बताये उसमें शुभकार्य मही होता है, ऐसे अक्षर लिखके पर्युषणा पर्व करनेका निषेध भोले जीवोंको वृथा क्यों उत्सूत्र भाषणरूप दिखाया और उत्सूत्र भाषणका भय होता तो उपरकी मिथ्या बातों लिखी जिसका मिथ्या दुष्कृत्य देकरके अपनी आत्माकी शुद्धि करनी उचित थी और न्यायांभोनिधिजीके परिवारवालोंको ऐसा उत्सूत्र भाषणरूप मिथ्या बातोंका अब हट भी करना उचित नही हैइसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंसे मेरा यही कहना है कि ज्योतिषके शुभाशुभ योगोंका और सिंहस्थका, चौमासाका, अधिक मासादिक का विचार न करते, निःशङ्कित होकर श्रीजिनोक्त मुजब धर्मकार्योंमें उद्यम करके अपनी आत्माका कल्याण करो आगे इच्छा तुम्हारी ;__और आगे फिर भी न्यायांसोनिधिजीमें लिखा है कि [ रत्नकोषाख्य ज्योतिःशास्त्र विषे भी ऐसा कहा है यथा यात्रा विवाहमण्डन, मन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि, परिहर्तव्यानि बुद्धैः, सर्वाणि नपुंसके मासि ॥१॥
भावार्थः-यात्रामण्डन, विवाहमण्डन और भी शुभ कार्य है सो भी पण्डित पुरुषोंने सर्व नपुंसके मासि कहने से अधिक मासमें त्यागने चाहिये अब देखिये इस लेखसे भी अधिक मासमें अत्युत्तम पर्युषणापर्व करनेकी संगति नही हो सकती है ]
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