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[ २०३ ]
और क्या होगा सो बुद्धिजन सज्जन पुरुष स्वयं विचार लेना । अब पांचमा और भी सुनो कि जो न्यायाम्भोनिधिजी अधिक मासको नपुंसक कहके यात्रा मण्डनका शुभका त्यागनेका ठहराते है परन्तु जैनके और वैष्णव के अनेक तीर्थ स्थान है उसी में अमुक अधिकमास में अमुक तीर्थयात्रा बन्ध हुई कोई देशी परदेशी यात्री यात्रा करने को न आया ऐसा देखने में तो दूर रहा किन्तु पाठकवर्गके सुनने में भी नही आया होगा तो फिर न्यायाम्भोनिधिजीनें कैसे लिखा होगा सो पाठक वर्ग विचार लेना ।
और छठा यह है कि न्यायाम्भोनिधिजी किसी भी अधिक मासमें कोई भी श्रीशत्रजय वगैरह तीर्थस्थान में ठहरे होवे उस अधिक मासमें तीर्थयात्रा खास आपने fear होगी तो फिर अधिक मासमें यात्राका निषेध भोले जीवोंको वृथा क्यों दिखाया होगा सो निष्पक्षपाती सज्जन पुरुष स्वयं विचार लो ;
और सातमी वारकी समीक्षा में
कदाग्रहियोंका मिथ्यात्व रूप भ्रमको दूर करनेके लिये मेरेकों लिखना पड़ता है कि न्यायाम्भोनिधिजी इतने विद्वान् न्यायके समुद्र होते भी गच्छका मिथ्या हठवादसे संसार व्यवहार में विवाहादि बड़े ही आरम्भके कराने वाले और अधोगतिका रस्तारूप लौकिक कार्य्य न होनेका दृष्टान्त दिखाकर महान् उत्तमोत्तम निरारम्भी ऊङ्घ गतिका रस्ता रूप लोकोत्तर कार्य्यका निषेध करती वरूत न्यायाम्भोनिधिजीके विद्वत्ताको चातुराई किस जगह चलो गईथी सो प्रत्यक्ष असङ्गत और उत्सूत्र भाषणरूप लिखते
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