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[ २०५ ] लेख लिखके अपनी चातुराई प्रगट किवी हैं उसीका उतारा नीचे मुजब जानो
[अधिक मासको अचेतन रूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है तो औरोको अङ्गीकार न करना इसमें तो क्याही कहना देखो आवश्यक नियुक्ति विषे कहा है यथाजइ फुल्ला कणिआरडा, चूअग अहिमासयंमिघुठंमि । तुहनखमं फुल्लेउ, जइ पच्चंता करिति इमराई ॥१॥ भावार्थः हे अंब अधिक मासमें कणियरको प्रफुल्लित देखके तेरेको फुलना उचित नही है क्योंकि यह जाति बिनाके आडम्बर दिखाते हैं अब देखिये हे मित्र यह अच्छी जातिको वनस्पति भी अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होती है]
ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गकों दिखाता हुं-कि हे सज्जन पुरुषों न्यायाम्भोनिधिजीने प्रथमतो ( अधिकमासको अचेतनरूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है ) यह अक्षर लिखे है सो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि दशलक्ष प्रत्येक वनस्पति तथा चौदह लक्ष साधारण वनस्पति यह चौवीश लक्ष योनीकी सब वनस्पति अवश्यमेव अधिक मासमें हवा पाणीके संयोगसे यथोचित नवीन पैदाश होती है औरवृद्धि पामती है प्रफुल्लित होती है
और निमित्त कारणसें नष्ट भी होजाती है जैसे बारह मासोंमें हानी वृद्धयादि वनस्पतिका स्वभाव है तैसे ही अधिक मास होनेसे तेरह मासों में भी बरोबर है यह बात अनादि कालसें चली आती है और प्रत्यक्ष भी दिखती है क्योंकि इस संवत् १९६६ का लौकिक पञ्चाङ्गमें दो
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