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[ २१५ ] शास्त्रों में कहा है और प्राचीन कालमें भी मासवद्धि होने में प्रावण मास प्रतिबद्ध पर्युषणा थी इसलिये मासवद्धि दो श्रावण होते भी भाद्रव मास प्रतिबद्ध पर्युषणा ठहराना शास्त्रविरुद्ध है और दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालोंको सिद्धान्तसें और लौकिक रीतिसे विरुद्ध ठहराना सो भी प्रत्यक्ष मिथ्या भाषण कारक हैं इसका उपरमें अनेक जगह विस्तारसे छपगया है और आगे विशेष विस्तार सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षामें करनेमें आवेगा;____ और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीने पर्युषणा सम्बन्धी अपना लेख पूर्ण करते अन्तमें पृष्ठ ९३ पंक्ति१३ सें पंक्ति १० तक ऐसे लिखा है कि [ पूर्वपक्ष पृष्ठ १५७ में लिखे हुए पाठका कुछ भी समाधान न किया
उत्तर-हे परीक्षक अधिक मासको जब कालचूला मान लिया तो शास्त्रके लिखे हुए ५० दिन भी सिद्ध होगये और ७० दिन भी सिद्ध होगये तो फिर काहेको अपने अपने मासमें नियत धर्मकार्य छोड़के और और कल्पना करके आग्रह करना चाहिये ] यह उपरका लेख न्यायांशोनिधि जीका शास्त्रोंके विरुद्ध और मायाशत्तिका भोले जीवोंकों भ्रमानेके वास्ते है क्योंकि प्रथम तो शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५७ में श्रीकल्पसूत्रका मूल (सवीसइ राइमासे इत्यादि ) पाठ लिखा है और दूसरा श्रीवहत्कल्पचूर्णिका पाठसे प्राचीनकालकी अपेक्षायें पांच पांच दिनकी वृद्धि करते दशवें पञ्चक में पचास दिने पर्युषणा दिखाई है और उसी श्रीवह कल्पकी चूर्णिमें अधिक मासको निश्चयके साथ अवश्य - गिनती में लेना कहा है जिसका पाठ आगे छठे महाशय
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