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[ १२ विरुद्ध हो करके अधिकमासकी गिनती निषेध करनेका प्रयास करते है सो बड़ी ही शर्मकी बात है और काल• चूलासम्बन्धी न्यायाम्भोनिधिजीने आगे लिखा हैं उसकी समीक्षा में भी आगे करूगा___और ( दशपञ्चक व्यवस्था लिखते हो सो तो कल्पव्यवच्छेद हुवा है यह सर्वजन प्रसिद्ध है ) इन अक्षरों कोभी में देखता हु तो न्यायांभोनिधिजीका अन्याय देखकर मूके बड़ाही आफसोस आता है क्योंकि शुद्ध समाचारी कारने जिस अभिप्रायसें लिखा था उसीको समझे बिना अन्याय मार्ग खण्डन करना न्यायांभोनिधिजीको उचित नहीं हैं क्योंकि शुद्धसमाचारी कारने तो इस काल में पचास दिनेही पर्युवणा करनी चाहिये इस बातकी पुष्टि के लिये शुद्ध समाचारीके पृष्ठ १५७ । १५८ में श्रीकल्पसूत्रजीका मूलपाठ, श्री. हत्कल्पचूर्णिका पाठ, और श्रीसमवायाङ्गजीका पाठ, लिखके पचास दिनेही पर्युषणा दिखाई थी परन्तु दशपञ्चक लिखके कुछ पाँच पाँच दिने प्राचीन कालकी रीतिसे पर्युषणा नही लिखी थी तथापि न्यायांभोनिधिजी शुद्धसमाचारी कारके अभिप्रायके विरुद्धार्थमें दशपञ्चकका कल्पविच्छेदकी बात लिखके पचास दिनकी पर्युषणाको निषेध करना चाहते हैं सो कदापि नही हो सकेगा और आगे फिर भी लिखा है कि-( लौकिक टिप्पणाके अनुसारसे हरेक वर्षमें आषाढ़ शुदी चतुर्दशीसे लेके भाद्रवा शुदी ४ और तुम्हारे कहने में दूसरे श्रावण शुदी ४ तक ५० दिन पूर्ण करने चाहोगें तो भी नही हो सकेगे क्योंकि तिथियां वध घट होती है तो किसी वर्ष में ४ दिन आजायगे और किसी वर्षमें
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