________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[ १७१ ] किये जाते हैं जिसमें पुण्य और पाप तेरह मासके लगते हैं तो फिर बारह मासकी आलोचना करके एक मासके पुण्यकार्योंकी अनुमोदना और पापकार्योंकी आलोचना नही करना यह तो प्रत्यक्ष अन्याय अल्पबुद्धिवाला भी कोई मंजूर नही कर सकता है और जिन्होंके ज्ञानमें एक समय मात्र भी धर्म अथवा कर्म बंधके सिवाय वृथा नही जाता है ऐसे श्रीसर्वज्ञ भगवान्के शास्त्रों में एक मासके धर्म और कर्मका न गिनना यह तो कभी नही हो सकता है इस लिये अधिक भास होनेसे अवश्य करके तेरह मास और छवीश पक्षादिकी आलोचना साम्बत्सरिमें करनी जैन शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक है इसका विशेष विस्तार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी आगे समीक्षा होगा उसमें शास्त्रों के प्रमाण सहित अच्छीतरहसे करने में आवेगा सो पढ़के विशेष निर्णय कर लेना और आगे लिखा है कि-अधिकमास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षके क्षामणे किसी भी स्थानमें नही लिखा हैं यह वाक्य भी मिथ्या है क्योंकि अनेक जगह अधिकमास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षके क्षामणे लिखे हैं जिसका भी वहांही आगे निर्णय होगा।____ और ( आपका प्रयास क्या काम आया ) इस लेखपर तो मेरेकों इतना ही कहना उचित है कि शुद्धसभाचारी कारने तो सिर्फ अधिकमासको गिनतीमें सिद्ध करके पचास दिने पर्युषणा दिखानेका प्रयास किया था सो शास्त्रानुसार न्याययुक्ति सहित होने से उन्हका प्रयास सफल हैं परन्तु न्यायाम्भोनिधिजी हो करके अन्यायसें और शास्त्रोंके
For Private And Personal