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[ १६० ] श्रीजिनप्रभ मूरिजीके लेखको न मानने वालेको मिथ्या दृष्टि ठहराते हैं तो इस जगह पाठकवर्ग विचार करो कि श्रीजिनप्रभसरिजीके ही खास परमपूज्य और पूर्वाचार्य श्रीजिनपति सरिजीके सत्य लेखको न मानने वाले तो स्वयं मिथ्या दृष्टि सिद्ध होगये फिर श्रीआत्मारामजी न्यायांभोनिधिजी न्यायके समुद्र हो करके अपने स्वहस्थे जिन्हीं के सन्तानिये श्रीजिनप्रभसरिजीके लेखको न मानने वालोंको मिथ्या दृष्टि लिखते है और श्रीजिनप्रभसूरिजीके ही पूर्वाचार्यजी श्रीजिनपति सूरिजीके सत्य लेखको अप्रमाण मान्यके खास आपही मिथ्या दृष्टि बनते है । हा अतिखेद ! इस बातको पाठकवर्ग निष्पक्षपातसे सत्य बातके ग्राही होकर अच्छी तरह से विचार लेना ;___ अब चौथा और भी सुनो श्रीआत्मारामजी इन्ही चतुर्थस्तुतिनिर्णयः पुस्तकके पृष्ठ १०१ । १०२ । १०३ में श्री वृहत्खरतरगच्छके श्रीजिनपतिसरिजी कृत समाचारीका पाठ लिखके उसीको श्रीजिनप्रभसरिजी कृत पाठकी तरह प्रमाणिक मानते हैं और श्रीजिनपतिसूरिजी कृत पाठकी श्रीजिनप्रभसरिजी कृत पाठके साथ भलामण देते है जिसमें श्रीजिनपतिसूरिजीका पाठको भी न मानने वालोंको मिथ्या दृष्टि सिद्ध करते है। और फिर आपही श्रीजिनपतिसरिजीकृत सत्य पाठको जैनसिद्धान्त समाचारीमें अप्रमाण ठहराकर नही मानते है जिससे (उपरोक्त न्यायानुसार करके ) मिथ्या दृष्टि बननेका कुछ भी भय न करते कितने अन्यायके रस्ते चलते है सो भी आत्मार्थी सज्जन पुरुष विचार लेना ;
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