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[ १६३ ] करनेवालोंकों निर्दूषण ठहराये (हा अति खेदः) इससे विशेष अन्याय दूसरा श्रीन्यायाम्भोनिधिजीका कौनसा होगा, किसूत्र, वृत्ति, भाष्य, चूर्णि, नियुक्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रों में श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्य और श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छकेही पूर्वाचार्य सबी उत्तम पुरुष ठामठाम कहते हैं कि पर्युषणा पचास दिने करना कल्पे परन्तु पचासमें दिनकी रात्रिको भी उल्लङ्घन करके एकावनमें दिनकी करना न कल्पे इसलिये योग्यक्षेत्र न मिले तो जङ्गलमें वृक्षनीचे भी पर्युषणा करलेना इतने पर भी कोई पचास दिनकी रात्रिको उल्लङ्घन करके एकावनमें दिन पर्युषणा करे तो श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाका लोपी होवें यह बात तो प्रायः जैनमें प्रसिद्ध भी है सो भी मासद्धि के अभावकी जैनपञ्चाङ्ग की रीतिसें वर्त्तनेकी थी परन्तु अब लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करनी सोभी जिनाज्ञा मुजब है इसीही कारणसें श्रीजिनपतिसरिजीने मासवृद्धि हो तोभी पचास दिने पर्युषणा कर लेनेका लिखा है सो सत्य है। और एकावन दिने भी पर्युषणा करने वाला जिनाज्ञाका लोपी होता है तो फिर ८० दिने पर्युषणा करने वाले क्या जिनाज्ञाके आराधक बन सकते हैं सो तो कदापि नही अर्थात् ८० दिने पर्युषणा करने वाले सर्वधा निश्चय करके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की आज्ञाके लोपी है इसलिये ८०दिने पर्युषणा करने वालों को श्रीजिनपतिसरिजीने जिनाज्ञाके विराधक ठहराए सो भी सत्य है इसलिये श्रीजिनपतिसरीजी महाराजका दोन वाक्य निषेध नही हो सकते हैं इतने परभी
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