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( १०८ )
भी दिखाते हैं कि- श्री निशीथसत्र के लघुभाष्य में १ तथा बृहद्भाष्य में ३, और चूर्णिमें ३, श्रीदशाश्रुतस्कन्ध चूर्णिमें ४, और वृत्ति में ५, श्री बृहत्कल्पसन के उघमाष्य में ६, वृहद्रा ण्य में 9, तथा चूर्णिमेंद, और वृत्तिमें ल, श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रकी - ति १०, श्रीकल्पसूत्रकी नियुक्ति में ११ तथा नियुक्तिकी वृत्ति में १२ और श्रीकल्पसूत्रकी चार वृत्तिओं में १६, श्रीमच्छाचारपयन्नःकी वृत्तिमें ११, श्रीविधिप्रपासमाचारी १८, श्री समाचारशतक में १९, इत्यादि अनेक शास्त्रों में खुलासा पूर्वक लिखा है कि- अभिवर्द्धित संवत्सर में आषाढ़ चौमासीसे लेकर के २० दिने, याने श्रावण सुदी पञ्चमीको पर्यषणा करने में आती थी । सो हमीही विषय सम्बन्धी इसी ग्रन्थको आदिमेंही श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्याओंके पाठ भावार्थ सहित तथा श्रीवृहत्कल्पवृत्तिका पाठ पृष्ठ २३ २४ में, श्रीपर्युषणाकल्पचूर्णिका पाठ पृष्ठ ९२ में तथा श्रीनिशी चूर्णिका पाठ पृष्ठ ९५ । ९६ में छप गया है और आगे भी कितनेही शास्त्रोंके पाठ छपेगे जिनको और अब इसीही वातका विशेष खुलासा करता हूं जिसका विवेक बुद्धिसे पक्षपात रहित होकर पढ़ोगे तो प्रत्यक्ष निर्णय हो जावेगा कि अभिवर्द्धितमें वोशदिने पर्युषणा होती थी इसके विषय में उपरोक्त अनेक शास्त्रोंके पाठोंके साथ श्रीपगच्छके श्री क्षेम कीर्त्तिसरिजी कृत श्रीष्ट हत्कल्पवृत्तिका पाठ भी पृष्ठ २३ तथा २४ में विस्तार पूर्वक उपगया है त - थापि इस जगह थोड़ासा फिर भी लिख दिखाता हूं तथाच
तहपाठ यथा
इत्थमनभिगृहीतं कियन्तं कालं वक्तव्यं, उच्यते । यद्यभि वर्द्धितो सौ सवत्सरस्ततो विंशतिरात्रिदिवानि अथ चंद्रोसी ततः सविंशतिरात्रं मास यावदनभिगृहीतं कर्त्तव्यं । तेणन्ति
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