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रीतिसे किवी थी और इन्हीं गाथाओंकी अनेक पूर्वाचायोने विस्तार करके अच्छी तरहसे टीका बनाई हैं उन सब व्याख्यायोंको और सत्रकारके सम्बधकी सब गाथायोंको छोड़करके सिर्फ एक पद लिखा सोभी मास वृद्धिके अभावका था जिसको भी मास वद्धि होते भी लिखके दिखाना सो आत्मार्थी भवभीरु पुरुषोंका काम नहीं हैं और में इस जगह श्रीउत्तराध्ययनजीसूत्र के २६ वा अध्ययनकी गाथा ११ वी,से १६ वी तक तथा व्याख्यायों के भावार्थ सहित विस्तार के कारणसे नहीं लिख सक्ता हुं परन्तु जिसके देखनेकी इच्छा होवे सो रायबहादुर धनपतसिंहजी की तरफसे जैनागम संग्रहका ४१ वा भागमें श्रीउत्तराध्ययनजी मूलसत्र तथा श्रीलक्ष्मीवल्लभगणिजी कृत वृत्ति और गुजराती भाषा सहित छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके २६ वा अध्ययन में साधुसमाचारी संम्बधी पौरषीका अधिकार पृष्ठ ७६६ में ७६९ तक गाथा ११वी से १६वी तथा वृत्ति और भाषा देखके निर्णय करलेना और जिसके पास हस्तलिखित पुस्तक मूल की तथा वृत्ति कीहोवे सोभी उपरोक्त अध्ययनकी गाथा और वृत्ति देखलेना और श्रीउत्तराध्ययनजी सूत्रकार श्रीगणधर महाराज अधिक मासको अच्छी तरहसे खुलासा पूर्वक यावत् मुहीमें भी गिनती करके मान्य करने वाले थे तथा अधिक मासके भी दिनोंकी गिनती सहित सर्यचार को मान्यने वाले थे इसलिये सूत्रकार गणधर महाराजके अभिप्रायः के सम्बन्धका सब पाठको छोड़के एकपद लिखनेसे अधिक मासमें सर्यवार नहीं होता है ऐसा तीनों महाशयोंका लिखना कदापि सत्य नहीं होशक्ता हैं अर्थात् सर्वथा मिथ्या हैं।
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