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[ १३८ ] को दिखाता हु,-सम्वत् १९६६ का जोधपुरी चंड पञ्चांगमें आषाढ़ शुक्ल ५ के दिन सूर्य उत्तरायनसे दक्षिणायन में हुवा था जिसमें मास वृद्धिसे दो श्रावण मास हुवे तब अधिक मासके दिनोंकी गिनती सहित चन्द्रमासकी अपेक्षासे तिथियोंकी हाणी वृद्धि हो करके भी १८३ वें दिन मार्गशीर्ष शुक्ल ए के दिन फिर भी सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायन में हुवा है सो पाठकवर्ग के सामनेकी ही बात हैं, इसी तरहसे लौकिक पञ्चाग में हरेक अधिक मासोंकी गिनतीसे सूर्यचारकी गिनती समझ लेना और सम्बत् १९६९ में खास दो आषढ़ मास होवेगें तबभी सर्यचारकी गतिको देखके पाठकवर्ग प्रत्यक्ष निर्णय करलेना-और मेरेपास विक्रम सम्वत् १९०१ से लेकर सम्वत् १९९वें तकके अधिक मासोंका प्रमाण मौजूद है परन्तु ग्रन्थगौरवके कारणसे नहीं लिखता हुं, इसलिये तीनों महाशय अधिक मास में सूर्यचार नहीं होता है ऐसा ठहराते है सो जैनशास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वक और लौकिक पञ्चाङ्गको रीतिसे भी प्रत्यक्ष मिथ्या हैं तथापि तीनों महाशयोंने भोले जीवोंकों अपने पक्ष में लानेके लिये ( आसाढ़ेमासे दुप्पया) इस वाक्यको लिखके सत्रकार गणधर महाराजका अभिप्रायके विरुद्ध हो करके
और फिरभी अधरालिख दिया क्योंकि गणधर महाराज श्रीसुधर्मस्वामिजीने श्रीउत्तराध्ययनजी सूत्रके छवीश ( २६ ) वें अध्ययन में साधसमाचारी सम्बन्धी पौरस्थाधिकारे-असाढ़े मासे दुप्पया, पोसेमासे चउप्पया ॥ चित्तासोएसु मासेसु, तिप्पया हवइपोरसी ११ इत्यादि १२।१३।१४।१।१६ गाथाओं से खुलासा पूर्वक व्याख्या मास यद्धिके अभावसे स्वभाविक
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