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१५३ ] उत्तर- श्रीजिनवल्लभसूरिजी कृत संघप की श्रीजिनपतिसूरीजी कृत वृहदत्तिमें ८० दिने पर्युषणा करने वालोंके पक्षको जिन वचन बाधाकारी कहा है सोई काव्य लिखते हैं यथा-वही लोक दिशा नास्य नासोः, सत्यां श्रुतोक्तं दिनं॥ पञ्चासं परिह य ही शुचिभयात्, पश्चाच्चतुर्मासकात् ॥ तत्राशीतितमे कथं विदधते, मूढामहं वार्षिकं ॥ कुग्रहाधिगणय्य जैन व चमो, बाधा मुनि व्यंसकाः ॥ १॥
भावार्थ:--लौकिक रीतिसें श्रावण और भाद्रपद मास अधिक होता है जब शास्त्रों में आषाढ़ चतुर्मासीसे पचास दिने पर्युषणापर्व करने का कहा है जिसको छोड़कर मूढ़ लोग अपना कदाग्रह से ८० दिने क्यों करते हैं क्योंकि ८० दिने पर्युषणा करने से जिन वचनको बाधा आती है याने शास्त्र विरुद्ध होता है जिपको नही गिनते हैं इस लिये ८० दिने पर्युषणा करने वाले लिङ्गधारी चैत्यवासी हठग्राही मुनिजन मध्ये ठग धूतारे हैं।
प्रश्नः-कैसे तिसका पक्ष जिन वचन बाधाकारी है।
उत्तर-श्रवण करो, प्रथम तो श्रावण और भाद्रव मालकी जैन सिद्धान्तकी अपेक्षायें वृद्धिका ही अभाव है केवल पौष और आषाढ़की वृद्धि होती थी और इस समयमें लौकिक टिप्पणाके अनु तारे हरेक मास वृद्धि होनेसें श्रावण और भाद्रपद मासकी भी वृद्धि होती है तब उनोकी वद्धि होनेसे भी दशपञ्चके अर्थात् आषाढ़ चौमासीसे पचाप्त दिने ही पर्युषणा करना सिद्ध होता है। सोई श्रीमान् चौदह पूर्वधारी श्रीभद्रबाहुखामीजी श्रीकल्प पत्रके विषे कहते हैं। यथा--तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं
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