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[ १५६ । श्रीरा यवन्द्रजी न्याययुक्त निष्पक्षपाती भवभिरू थे सो तो पाठकवर्ग भी विशेष विचार शकते हैं और उपरके लेखमें श्रीसङ्घपट्टक वहत् वृत्तिका जो श्लोक लिखा हैं सो श्रीतपगच्छवालोंके लिये वृत्तिकार महाराजने नहीं लिखा था, तयापि श्रीतपगच्छवालोंके लिये उपरोक्त श्लोक समझते है उन्होंके समझ में फेर है क्योंकि श्रीसङ्घपट्टक की वृहद्वृत्ति सम्वत् १२५० के लगभग बनी थी उसी वरूत तपगच्छही नहीं हुवा था क्योंकि श्रीचैत्रवालगच्छके श्रीजगच्चन्द्रमरिजी महाराजसै सम्बत् १२८५ वर्षे तपगच्छ हुवा है और श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्य जितने हुवे है सो सबीही अधिक मासको गिनतीमें मान्य करनेवाले तथा ५० दिने पर्युषणा करनेवाले थे इसलिये उपरका श्लोक श्रीतपगच्छवालोंके लिये नहीं हैं किन्तु उस समयमें कदाग्रहीशिथिलाचारी उत्सत्रभाषक चैत्यवाशी बहुत थे वे लोग शास्त्रों के प्रमाण बिनाभी ८० दिने पर्युषणा करते थे और भी श्रीचन्द्रपन्नति श्रीमर्यपन्नति श्री जम्बूद्वीपपन्नति श्रीसमवायत्री वगैरह अनेक सूत्रवृत्ति चूण्यादि शास्त्रानुसार और अन्नमतके भी ज्योतिष मुजब वे चैत्यवाशीजन प्रायःकरके ज्योतिषशास्त्रोंके विशेष जान कार थे, इसलिये अधिक मासकी उत्पत्ति का कारण कार्यादिकको जानते हुये अधिक मासको अङ्गीकार करनेवाले थे तथापि मिथ्यात्वरूप अज्ञानदशाके हठवादने लौकिक पञ्चाङ्ग में दो श्रावण होतेभी भाद्रपद में पर्यषा चैत्यवाशी लोग करते थे जिसमें ८० दिन होते थे उन्होंके लिये उपरका श्लोक लिखा गया है नतु कि श्रीतपगच्छवालोंके लिये।
भब उपरोक्त शुद्ध समाचारीप्रकाशका लेखपर जो न्यायां
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