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[ १३५ ] और पाठकवर्ग तथा विशेष करके श्रीतपगच्छके मुनि महाशय और श्रावकादि महाशयों को मेरा इस जगह इतना ही कहना है कि आप लोग निष्पक्षपातसे विवेक बुद्धि हृदय में लाकर तीनों महाशयों के लेखको टुक नजरसे थोड़ासा भी तो विचार करके देखो इस जगह क्षामणा के सम्बन्धमें दूसरों को कहने के लिये तीनों महाशयोंने 'अधिकमासति त्रयोदशषु मासेषु जातेष्वपि, इत्यादि । तथा 'एवं चतुर्मासकक्षामणेऽधिक मास सद्भावेऽपि, यह वाक्य लिखके अधिकमास को गिनतीमें लेकर तेरह मास अभिवर्द्धित सम्वत्सरमें और चौमासामें भी अधिक मातका सद्भाव मान्यकर अभिवद्धित चौमासा पाँचमास का दिखाया । इस जगह उपरोक्त इस वाक्यसे अधिकमासको तीनों महाशयोंने प्रमाण करके मंजूर करलिया और पहिले पर्युषणाके सम्बन्धमें अधिक श्रावणकी और अधिक आश्विनकी गिनती निषेध कर दिवी, जब क्षामणा के सम्बन्ध में अधिक मासको गिनतीमें खुलासा मंजूर करलिया तो फिर विप्तम्वादी वाक्यरूप संसार वृद्धिकारक अधिक मासकी गिनतीका निषेध वृथा क्यों किया इसका विशेष विचार पाठकवर्ग स्वयं करलेना, और अब श्रीतपगच्छ के वर्तमानिक महाशयोंको मेरा इतनाही कहना है कि आपलोग तीनों महाशयोंके वचनोंको प्रमाण करते हो तो इन्होंके लिखे शब्दानुसार अधिक मासकी गिनती मंजूर करोगे किम्वा विसंवादी पूर्वापर विरोधी वाक्यरूप निषेधको मंजूर करोगे जो गिनती मंजूरकरोगे तबतो वर्तमानिक लौकिक पञ्चागमें दो श्रावण वा दो भाद्रपद अथवा दो आश्विनादि मामोंकी वृद्धि होनेसे अधिक मामका गिनतीमें
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