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[ १२० ] उत्सूत्र भाषणरूप था क्यों परिश्रम करके भोले जीवोंको भ्रमजालमें गेरते संसारद्धिका भय कुछ भी नही रक्खा है इसलिये अब लाचार होकर भव्यजीवोंकी शुद्धश्रद्धा होनेके कारणरूप उपकारके लिये और तीनों महाशयोंका सूत्रकारके विरुद्ध उत्सूत्रभाषणके कदाग्रहको दूर करनेके वास्ते सूत्रकार और वृत्तिकार महाराजके अभिप्राय को ईस जगह लिख दिखता हूं---
श्रीसुधर्मस्वामिजी कृत श्रीसमवायाङ्गजीमूलसूत्र तथा श्रीखरतरगच्छनायक श्रीअभयदेवमूरिजी कृत वृत्ति और गुजराती भाषा सहित छपके प्रसिद्ध हुआ है जिसके पृष्ठ १२७ में तथाच तत्पाठः__समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराइ मासै वइक्कते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहिं वासावासंपज्जोसवेद ॥
अथ सप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते समणेत्यादिवर्षाणां चातुर्मासप्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिदिवाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशतिदिनेष्वतीतेवित्यर्थः सप्तत्याच रात्रिदिनेषु शेषेषु भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः, वर्षास्वावासो वर्षावासः वर्षावस्थानं पज्जोसवेइत्ति परिवसति सर्वथा करोति पञ्चाशतिप्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविध वसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति अतिभाद्रपद शुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयमिति ॥
भावार्थः-श्रमण भगवन् श्रीमहावीरस्वामिजीने वर्षाकाल के चारमास कहे है जिसके १२० दिन होते हैं जिसमें एकमास अधिक वीशदिन याने ५० दिन जानेसे और ७० दिन पीछाड़ी बाकी रहनेसे भाद्रपद शुक्लपञ्चमीके
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