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[ ३९ ] पर्वकी व्याख्या सर्वतीर्थङ्कर महाराजों ने अर्थात् अनन्त तीर्थङ्करों ने कही हैं तैसे ही वृत्तिकार मलयगिरिजीने चन्द्र प्रज्ञप्तिकी तथा सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्तिमें खुलासें लिखी हैं और श्रीचंद्रप्रज्ञप्ति वृत्तिमें पृष्ठ १११ से ११३ में तथा १३४ में और श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिमें पृष्ठ १२४ से २२८ तक नक्षत्र संवत्सर १ चन्द्र संवत्तर २ ऋतु संवत्सर ३ आदित्य ( सूर्य्य ) सम्वत्सर ४ और अभिवर्द्धित संवत्सर ५ इन पांच संवत्सरों का प्रसाण विस्तार पूर्वक वर्णन किया हैं जिसकी इच्छा होवें सो देखके नि.सन्देह होना इस जगह विस्तार के कारण से सब पाठ नही लिखते हैं।
और भी श्रीसुधर्मस्वामिजी कृत श्रीसमवायांगजी मूलसूत्र तथा श्रीखरतरगच्छनायक श्रीअभयदेव मूरिजी कृत. वृत्ति और श्रीपावचन्द्रजी कृत भाषा सहित ( श्रीमकसूदाबाद निवासी राय बहादुर धनपतसिंहजीका जैनागम संग्रह के भाग चौथेमें ) छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके ६१ मा और ६२ मा समवायाङ्गमें मासोंकी गिनती के सम्बन्ध वाला पृष्ठ ११९ और १२० का पाठ नीचे मुजब जानो यथा
पंचसंवच्छरियस्सणं जुगस्सरिज मासैणं मिऊमाणस्स इगसठिं उऊ मासापन्नता। ___ अथैकषष्टिस्थानकं तत्र पञ्चेत्यादि पञ्चभिः संवत्सरैनिवृतमिति पञ्चसांवत्सरिकं तस्यणमित्यलङ्कारे युगस्य कालमानविशेषस्य ऋतुमासेन चन्द्रादिमाशैन मीयमानस्य एकषष्ठिः ऋतुमासाः प्रज्ञप्ताः इह चायं भावार्थः युग हि पञ्चसंवत्सरा निष्पादयन्ति तद्यथा-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवद्धितश्चन्द्रोऽभिवद्धितश्वेति तत्र एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशत द्विषष्ठिभागा
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