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खण्डनरूप सर्वथा जैन शास्त्रोंसे और युक्ति से भी प्रतिकुल हैं क्योंकि प्रथमतो अधिक मासको गिनती में लेनेसेही अभि वर्षित नाम संवत्तर बनता हैं सो अभिवर्धित संवत्सर तीनो महाशयोंने उपरमें लिखा हैं जो अभिवति संवत्सर का नाम श्रीतीर्थङ्करादि महाराजांकी आज्ञानुसार कायम तीनो महाशय रक्खेंगें तो अधिकमास कालचूला है सो दिनोंकी गिनती में नहीं आता है ऐसे मतलबका लिखना तीनो महाशयोंका सर्वथा मिथ्या हो जायगा -
और अधिकमास कालचूला है तो दिनोंकी गिनती में नही आता है ऐसे मतलबको कायम रक्खेंगे तो जो अधिकमास की गिनती से अभिवर्द्धित नाम संवत्सर होता है सो नही बनेगा यह दोनो बात पूर्वापर विरोधी होनेसे नही बनेगे इस लिये अबजो ये तीनो महाशय अधिकमासको दिनोकी गिनती में नही लेवेंगें तब तो श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि तथा श्रीतपगच्छके नायक पूर्वा वार्येने अधिक मासको दिनो की गिनती में लिया है जिन महाराजोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणरूप तीनो महाशयोंका वचन होगया सो आत्मार्थियोंको सर्वथा त्यागने योग्य हैं इस लिये तीनो महाशयों को जिनाज्ञा विरुद्ध परूपणाका भय होता तो अधिकमासकी गिनती निषेध किवी जिसका मिथ्या दुष्कृत्यादिसे अपनी आत्मा को उत्सूत्र भाषणके कृत्योंसे बचानी थी सो तो वर्तमान कालमें रहे नही है परलोक गयेको अनेक वर्ष होगये हैं परन्तु वर्तमान काल में श्रीतपगच्छके अनेक साधुजी विद्वान् नाम घराते हैं और उन्ही तीनो महाशय के लिखे वाक्यको सत्य मानते है तथा हर वर्षे उसीको पर्युषणा में बाँचते है
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