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जिसमें प्रायः करके गांव गांवमें श्रीतपगच्छके सब साधजी अधिकमासकी गिनती निषेध जैन शास्त्रों के विरुद्ध करते है जिससे श्रीतीर्थङ्करगणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्य्य तथा श्रीतपगच्छके पूर्वज पुरुषांकी आज्ञाभङ्गका कारण होता है सो आत्नार्थी पुरुषको करना उचित नही हैं इसलिये जो श्रीतपगच्छके वर्तमानिक मुनिमहाशयोंको जिनाज्ञा विरुद्ध परूपणाका भय होवे तो अधिकमासकी गिनती निषेध करने का छोड़ देना ही उचित है और आजतक निषेध किया जिप्तका मिथ्या दुष्कृत्य देकर अपनी आत्माको उत्सूत्र भाषणके पापक त्योंसे बचानी चाहिये, तथापि विद्वत्ताके अभिमानसे और गच्छके कदाग्रहका पक्षपातके जोरसे उपर की बातको अङ्गीकार नही करते हुए अधिकमासकी गिनती निषेध करते रहेगे तो आत्मार्थीपना नही रहेगा तथा अधिकमासकी गिनती निषेध जैन शास्त्रोंके विरुद्ध होनेसे कोई आत्मार्थी प्रमाण नही कर सकता है इस लिये जैन शास्त्रानुसार श्रीतीर्थङ्करगणधरादि महाराजोंकी तथा अपने पूर्वाचार्योंकी आज्ञा मुजब अधिकमासकी गिनती सर्वथा प्रकारसे अवश्यमेव प्रमाण करनी सोही सम्यक्त्व धारी पुरुषोंका काम है जैनटिप्यनानुसार पौष तथा आषाढमासकी द्धि होती थी जब भी गिनतीमें लेते थे इस कारणसे तेरह चन्द्रमासोंसे संवत्सरका नाम अभिवर्द्धित होता था, सो वर्तमान कालमें भी अनेक जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है तथा श्रीधमंतागरजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी, ये तीनो महाशय भी अभिवर्द्धित संवत्सर लिखते हैं जिसमें अधिकमासकी गिनती आजाती है इस मतलबका
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