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जैन सिद्धान्त सनावारी कारने ( यथा निशीथे दशवैकालिक वृत्तौच — इस वाक्यसें जैसे निशीथ सूत्र विषे और दशवैका - लिक वृत्तिविषे है तैसे दिखाते हैं ) एसा लिखके भोले जीवोंको शास्त्र के नाम लिख दिखाये परन्तु शास्त्रकारका बनाया पाठ नही लिखा एसा करना आत्मार्थी उत्तम पुरुषको योग्य नही है और पाठका भावार्थ लिखे बाद पूर्वपक्ष उठाके उत्तर लिखा है जिसमें भी शास्त्रों के विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप बिलकुल सर्वथा अनुचित लिख दिया है क्योंकि ( चूलावाले पदार्थ के साथ प्रमाण का विचार करना होवे तो उस पदार्थसे चूला न्यारी नहीं गिनी जाती है ) इन अक्षरो करके चूलाकी गिनती भिन्न नही करनी करते है सो भी मिथ्या है, क्योंकि शास्त्रकारों नें चूला गिनती भिन्न करके मूलके साथ जिलाइ है सोही दिखाते है कि- देखो जैसे श्रीमन्त्राधिराज महामङ्गलकारी श्रीपरमेष्टि मन्त्रमें मूल पांचपदके ३५ अक्षर है तथा चार चूलिका के ३३ अक्षर हैं सो मूलके साथ मिलने से नवपदोसें चूलि - कायों सहित ६८ अक्षरका श्रीनवकार परमेष्टि मन्त्र कहा जाता है और श्रीशवेकालिकजी मूलसूत्रके दश अध्ययन है तथा दो चूलिका है जिसको भी शास्त्रकारोनें अध्ययन रूप ही मान्य किवी है और निर्युक्ति, चूर्णि, अवचूरि, वृहद् - वृत्ति, लघुवृत्ति, शब्दार्थवृत्ति वगैरह सबी व्याख्याकारोंने जैसे दश अध्ययनोंका अनुक्रमे सम्बन्ध मिलायके व्याख्या किवी है तैसे ही दो चूलिकारूप अध्ययनकी भी अनुक्रमणिका सम्बन्ध मिलायके व्याख्या किवी है और व्याख्यायोंके श्लोकोंकी संख्या भी चूलिकाके साथ सामिल करनेमें आती
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