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मेरुपर्वत उपरे, चालीसुच्चा के०, चालीस योजननी. उंची, अने, वह के०, वर्तुल तथा, मूलुवरि बारचउपिहुला के०, मूलने विषे बार योजन पहोली अने उपर चारयोजन पहोली, तथा, बेरुलिया के०, वैडूर्यनामे जे नीलारत्न तेनी, वर के०, प्रधान, चूला के०, चूलिका छे तेवली चूलिका केहवी छे, सिरिभवण पमाण चेइहरा के०, श्रीदेवीना भवन सरखा चैत्यग्रह एटले जिन भवण तेणे करि महाशोभित छे इति गाथार्थ ॥ ११३ ॥ उपरकी श्रीरत्नशेखर सूरिजी कृत गाथासे पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे कि, प्रगट पनेसे लक्षयोजनका मेरुके उपरकी चूलिकाके चालीस योजन का प्रमाण भिन्न गिना हैं तथापि जैनसिद्धान्त समाचारीकार भिन्न नही गिनना कहते हैं सो कैसे बनेगा तथा और भी सुनिये जो चूलिकाके प्रमाणको भिन्न नही गिनोंगे तो फिर चूलिकाके उपर एक चैत्य है जिसमें १२० शाश्वती श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाजी है उन्होंकी गिनती कैसे करोगे क्योंकि मेरुमें तो १६ चैत्य कहे है जिसमें १९२० प्रतिमाजी है। तथा एक चूलिकाके चैत्यको १२० प्रतिमाजीकी गिनती शास्त्रकारोंने भिन्न किवी है सो, जैनमें प्रसिद्ध है। इस लिये चूलिकाकी गिनती अवश्यमेव करनी योग्य है तथापि जो मेरुके चूलिकाकी गिनती भिन्न नही करते हैं जिन्होंको एक चैत्यकी १२० शाश्वती जिन प्रतिमाजीकी गिनतीका निषेधके दूषणकी प्राप्ति होनेका प्रत्यक्ष दिखता है।
और भी आगे कालचूलाके विषयमें जैन सिद्धान्तसमाचारीके कर्त्ताने ऐसे लिखा है कि ( तैसे चतुर्मासके विचारमें और वर्ष के विचार करनेके अवसरमें अधिक मासका विचार
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