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मायिककी सबपूरी विधि करलेना चाहिये. जिसके बदले उसको अधूरी विधि कहकर निषेध करने वालोंकों व उसके सर्वथा विरुद्ध अपनी कल्पनामुजब करवाने वालोंको श्री आवश्यक सूत्रादि आगमार्थरूप पं. चांगीके उत्थापनसे उत्सूत्रप्ररूपणारूप दोषके भागी होना पडता है, इसलिये आत्मार्थी भवभिरुयोंको ऐसा करना योग्य नहीं है ।
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३७- औरभी देखिये जैसे- जिनमंदिर में विधियुक्त 'द्रव्य भाव पूजा कर निजधर गया' ऐसा किसी शास्त्र में संक्षेप में सूचनारूप अधिकार आया होंवे, उसका विशेष भावार्थ तत्त्वदृष्टिसे समझे बिनाही उसमें स्नान करने, पवित्र वस्त्र पहिरने, मुख कोश बांधने, केशर चंदनादि सामग्री लेने वगैरहके अक्षर न देखकर उसको जिनपूजाकी अधूरी विधि कहकर सर्वथा जिनपूजाका निषेध करने वालों को अज्ञानी समझने में आते हैं, क्योंकि उपयोगयुक्त भाव से हमेश जिनपूजा करने घाले तो जिनपूजाकी सब पूरी विधिको अच्छी तरहसे जाननेवाले होते हैं, उन्होंके लिये विशेष लिखने की कोई जरूरत नहीं है, किंतु द्रव्य भाव पूजा' कहने से उपयोग युक्त स्नान करने, पवित्र वस्त्र धारन करने, मुखकोश बांधने, जिन मंदिर में प्रवेश करने, निसीही कहने, मंदिर की सार संभाल लेने, ३ प्रदिक्षणा देने, केशर - चंदनधूप-दीप- अक्षतादि सामग्री लेने, और चैत्यवंदन - शक्रस्तव- जिनगु ण स्तुति आदि से दश त्रिकसहित उपयोगसे पूजा करने वगैरहकी सब बातें तो अपने आपही समझलेते हैं. इसलिये 'द्रव्य भाव पूजा' क इसे संक्षेप में जिनपूजाकी सब पूरी विधि समझनी चाहिये, तैसेहीसामायिककी विधिको जानने वाले उपयोग युक्त हमेश सामायिक करनेवालोंके लिये तो- 'अपने घर से सामायिकलेकर साधुकीतरह इरिया समिति पूर्वक उपयोगसे गुरुपास आवे ' इस वाक्य से, तथा गुरुको वंदन करके फिर सामायिकका उच्चारण करे बाद इरियावही पूर्वक पढे सुने वा पूछे' इस वाक्यसे सामायिक करने के लिये प त्रिवस्त्र धारणकरनेका तथा मुहपत्ति आदि सामग्री लेनेका और खमासमणपूर्वक सामायिक संबंधी मुहपत्ति पडिलेहणादिक के आदेशलेने बगैरहले सामायिककी सब विधिपूरी समझ लेना चाहिये, जानकारों केलिये उसजगह इससे विशेष लिखें तो पुनरुक्ति दोष आ वे, पिष्टपेषण जैसे होवे, उससे वहां ' जागृतको जगाने ' की तरह विशेष लिखने की कोई जरूरत नहीं हैं, इसलिये गुरुगम्यताले तत्त्वटपूर्वक विवेकबुद्धिसे शास्त्रकार महाराजोंके गंभीर आशयको स
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