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अभिप्रायविरुद्धहोकर सामायिक में प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते. का स्थापन करने के लिये 'खरतरगच्छ समीक्षा' में अनेक तरहसे शास्त्रविरुद्ध व कुयुक्तियों से अनर्थ किये हैं, उसका खुलासा ऊपरके लेखले पाठकगण स्वयं विचार लेंगे. इसी तरहसे आनंदसागरजीने 'धर्म संग्रह' की प्रस्तावना, चतुरविजयजीने 'संबोधसत्तारप्रकरण वृत्ति' की टिप्पणिकामे,श्रीकांतिविजय जी अमरविजयजीने 'जै. नसिद्धांतसामाचारी'में, धर्मसागरजीने इरियावही षत्रिंशिका प्रवचन परीक्षादिकमें औरभी कोईभी महाशय कोईभी ग्रंथ में सामायिकमें प्रथम करेमिमंते पीछ इरियावही करनेका निषेधकरके, प्रथम इरि. यावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले सब शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करनेवाले उपरके लेखसे समझ लेने चाहिये.
और पर्युषणासंबंधी,तथा छ कल्याणक संबंधीभी न्यायरत्नजीने अनेक शास्त्रविरुद्ध और कुयुक्तियोंके संग्रह से ऐसे२ ही अनर्थकियेहैं, उन सबका खुलासा समाधान पूर्वक निर्णय इसी ग्रंथमें और इस ग्रंथके प्रथम भागकी भूमिकाके ४७ प्रकरणों में और सुबोधिकादिककी २८ भूलोवाले लेखमें अच्छी तरहसे खुलासा सहित छप चुका है । इसलिये यहां पर फिरसे विशेष लिखने की कोई जरूरत नहीं है, सत्य तत्त्वाभिलाषी पाठकगण वहांसे समझ लेंगे । औरभी न्यायरलजीने श्रीअभयदेवसूरिजी संबंधी व तिथि संबंधी जो जो शास्त्र. विरुद्ध बातें लिखी हैं, उन सबका खलासा श्रीमान पन्यासजी श्री केशर मुनिजीने 'प्रश्नोत्तरमंजरी' के तीनों भागामें अच्छी तरहसे छपवाकर प्रसिद्ध कियाहै, उनके वांचनेसे सब खुलासा हो जायेगा. और मैं भी तीसरे भागकी उद्घोषण में थोडासा नमूनारूप लिखूगा तब वहां जैन मुनियोंको रेल विहार निषेध, व व्याख्यानके समय मुह पत्तिका बांधना और देशकालानुसार विशेष लाभ जानकर स्त्रीपुरुषों की सभामे साध्वियोंको धर्म शास्त्रका व्याख्यान करना [ धर्म का उपदेश देना] वगैरह बातों संबंधीभी खुलासा लिखनेमें भावे. गा. पाठक गण वहांसे सर्व निर्णय समझ लेना. इति शुभम्.
विक्रम संवत् १९७८ वैशाख वदी पंचमी बुधवार.
हस्ताक्षर श्रीमान्-उपाध्यायजी श्रीसुमतिसागरजीमहाराजके लघु शिष्य मुनि--मणिसागर. जैन धर्मशाला, खानदेश-धूलिया.
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