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a नवीन श्रावक तथा चामुंडिका देवी प्रतिबोधक' 'चैत्यवास शिथिलाचार निषेधक कल्याणक प्रकट कर्ता' वगैरह बातेंभी इन महाराजने जैनसमाजपर किये हुए उपकारोंकी याद गिरिकेलिये प्रसंशारूप लिखी हैं, सो नवीन कल्पित नहीं, किंतु शास्त्रानुसार प्राचीनही है. इसलिये प्रसंशारूप लिखी हैं । जिसका मर्मभेद समझेबिना, गणधर सार्द्ध शतक ' ग्रंथकी लघुवृत्ति तथा बृहद्वृत्तिके 'यो न शेषसूरीणां ' इत्यादि पाठोंके ऊपर मुजब सत्यअ - थौको छुपाकरके अपनी मतिकल्पना मुजब खोटे खोटे अर्थकरके भोले जीवों को मिथ्यात्व के उन्मार्ग में गेरने केलिये धर्मसागरजी की अंध परंपरावाले उनकी देखा देखी वर्तमानिक न्यायांभोनिधिजी, शास्त्र विशारदजी, न्यायविशारदजी, विद्यासागर न्यायरत्नजी, जैनरत्न, व्याख्यानवाचस्पति, आगमोद्धारक, गीतार्थ, वगैरह विशेषणको धारणकेरनवाल आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, गणि, पन्यास, प्रसिद्धवक्ता, विद्वान् मुनिजन आदि सर्व ऐसेही अनर्थ करते हुए चले जाते हैं. और सामान्यविशेष बातका भेदसमझे बिनाही सर्वतीर्थकर महाराजों सं
पंचाशक सूत्रवृत्ति का पांच कल्याणकों संबंधी सामान्यपाठको आगे करके कल्प, स्थानांग, आचारांगादि में विशेषता पूर्वक च्यवनादि छ कल्याणककहे हैं, उन्होका निषेधकरने केलिये आगमों के अनादिसिद्ध seetादि कल्याणक अर्थको उडा देते हैं. तथा जैसे यति-मुनि-साधुअणगार शब्द एकार्थके भावार्थवाले है, तैसे ही च्यवनादि वस्तु-स्थानकल्याणक शब्दभी एकार्थके भावार्थवाले हैं, उसकाभेद समझे बिना ही च्यवनादिकोंको वस्तु-स्थान कहकर कल्याणकपने रहित ठहराते हैं । मगर दीर्घदृष्टिसे विवेकबुद्धिपूर्वक शास्त्रकार महाराजों के अभिप्राय तरफ उपयोग लगाकर सत्य तत्त्व बात का कोईभी विचार नहीं करते हैं, यह अंधपरंपराकी कितनी बडीभारी लज्जनीय अनुचित प्रवृत्तिहै. इसको विशेष विवेकीतत्त्वज्ञ पाठकगण स्वयंविचार सकते हैं ।
औरभी देखिये -विवेक बुद्धिसे खूब विचारकरीये, यदि नीचगोत्र कर्मविपाकरूप तथा आश्चर्यरूप कहनेसे कल्याणकपनेका निषेध हो सकता होवे, तबतो आषाढशुदी ६ को देवानंदामाता के गर्भ में भगवान् आये, सोही नीचगौत्र कर्मविपाकरूप होनेसे कल्पसूत्रादि शास्त्रोंमैं उनको आश्चर्य कहा है, इसलिये तुम्हारे मंतव्य मुजबतो उनकोभी क ल्याणकपनेका निषेध हो जावेगा और विशेष अधिक आश्चर्यकारक दूसरे च्यवनकी तरह प्रथमच्यवनभी कल्याणकपनें रहित होनेसे शे
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