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[६२] ३- अधिक महीनेके अभावसंबंधी भाद्रपदमें पर्युषणा करनेके व उसकेपीछे ७० दिन रहनेके और १२ मासी क्षामणे वगैरहके सामा. न्यपाठौको अधिकमहीना होवे तबभी आगेलाते हैं । और अधिकमहीनेसंबंधी “पचाशतैव दिनेः पर्युषणा संगतेति वृद्धाः" कल्पसूत्रकी सर्व टीकाओंके इस विशेषपाठको, तथा स्थानांगसूत्रवृत्ति, निशीथचूर्णि,वृहत्कल्पचूर्णि, वृत्ति, पर्युषणाकल्प चूर्णि वगैरह शास्त्रोके १०० दिन रहने संबंधीआदि विशेषताके पाठोकी सत्यबातोंको छुपाकरके छोड देते हैं, सो यह सर्वथा अनुचित है।
४- धार्मिक कार्य करनेमें १२ महीनोंके सर्व दिन, या अधिक महीना होवे तब १३महीनों केभी सर्व दिन, वा क्षय महीनेकेभी सर्वदिन बरोबर समानही हैं, उनमें कर्मबंधनके संसारिक कार्य और कर्म निर्जराके धार्मिक कार्य हमेशा बराबर होते रहते हैं, इसलिये तत्त्वदृष्टिसे तो उनमेंसे एक समय मात्रभी गिनती में नहीं छुट सकता. जिसपरभी कार्तिकादि क्षयमहीनेके ३० दिनों में दीवाली, ज्ञानपंचमी, चौमासी वगैरह धार्मिक कार्य करते हुएभी अधिक महीनेके ३० दिनोंको तुच्छ समझकर बड़ी निंदा करते हैं, या कालचूलाके नामसे गिनतीमें छोड देनेका कहते हैं, सो सर्वथा जिनाज्ञाका उत्थापन करते हैं।
५- जैन ज्योतिषविषयसंबंधी प्ररूपणा आगमानुसार करनी और श्रद्धाभी उसीमुजबरखनी,परंतु अभी पडताकालमें जैनटिप्पणा बंध होनेसे उस मुजब व्यवहार नहीं करसकते.और लौकिकटिप्पणा मुजब व्यवहार करनेमें आता है। इसलिये अभी जैन शास्त्रमुजव पौष आषाढ आधिक होनेसंबंधी पाठ बतलाकर लौकिक टिप्पणासंबंधी चैत्र श्रावणादि अधिकमहीने मान्यकरनेका निषेध नहीं करस. कते । और जैसे जिनकल्पी व्यवहार अभी विच्छेद है तोभी उन्हकी प्ररूपणाकरनेमें आतीहै, तैसेही पौष-आषाढ बढनकी प्ररूपणा तो शास्त्रानुसार करसकते हैं, मगर मास-पक्ष-तिथि वगैरहका वर्ताव तो लौकिक टिप्पणा मुजबही करना योग्य है।
इन सर्व बातोंका विशेष निर्णय ऊपरके भूमिकाके लेखमें और इस ग्रंथमें अच्छी तरहसे हो चुका है । यहां तो उसका संक्षिप्तसार मात्रही बतलाया है. मगर विशेष निर्णय करनेकी अभिलाषावाले पाठकगण इसग्रंथको संपूरणतया वांगेतो सबखुलासा हो जावेगा
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