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प्रपंच में फंसना पडे,इस अभिप्रायसे मैने मुंबईके सब संघको बीचमे न पडनेका लिखाथा, जिसपर आप "संघकी जरूरत नहीं" ऐसा उलटा लिखते हो सो अनुचित है, मुंबईके, व अन्यत्रकेभी सब संघको सभामें आना व शांतिपूर्वक सत्यग्रहण करना, यह खास जरू. रत है, इसलिये-सभामें अवश्य पधारना और पक्षपात रहित होकर सत्यवाही होना चाहिये.
३-ओर आपभी अपनी बनाई 'पर्युषणापर्वनिर्णय'के पृष्ट २२ वे की पंक्ति ४-५-६ में लिखते हैं, कि-" सभामें वादी प्रतिवादी-सभा. दक्ष-दंडनायक और साक्षी ये पांचबातें होना चाहिये दोनों पक्षवालोकी रायसे सभा करनेका स्थान और दिन मुकरर करना चाहिये। देखिये-न्यायरतनजी यह आपकेलेख मुजबही हममंजूर करते हैं, अब आपकोभी अपना यह लेख मंजूर हो तो सभा करना मंजूर करो,आपका और हमारा शास्त्रार्थ कबहावे, यह देखने को सारी दुनिया उत्सुक हो रही है. जब सभाका दिन मुकरर होगा तब मुंबईके व अन्यजगहकेभी बहुतसे आदमी स्वयं देखनेको आजावेगें "सभाका . २महीनेका समय होनेसे देशांतरकेभी श्रावक सभाका लाभ ले सकेगे" यहकथन दादर और वालकेश्वरमें आपहीकाथा, अब आ. पकेलेख मुजबही साक्षीवगैरहके नाम व अन्य नियमभी मिलकर क. रनेचाहिये, पहिले विज्ञापनमें मैंभी लिख चुकाहूं.
४ आप लिखतेहैं कि "संघका मेरेपर आमंत्रण आवे तो मैं स. भामें शास्त्रार्थकेलिये आनेकोतयार हूं" यह आपका लिखना शास्त्रा र्थसे भगनेकाहै, क्योंकि पहिले आपही लिखचुके हो कि स्थान और दिन दोनोमिलकर मुकररकरें,अब संघपर गेरतेहो यहन्यायविरुद्धहै,
और पहिले कभी राजा महाराजोंकी सभामें शास्त्रार्थ होताथा,तबभी वादी प्रतिवादीको संघ तरफले आमंत्रण हो या न हो, मगर अपना पक्षकी सत्यता दिखलानेको स्वयं राजसभामे जातेथे.या अपनेपक्ष' के संघ अपनेविश्वासी गुरुको विनती करताथा, मगर सब संघ दो नोपक्षवाले विनती कभीनहीं करसकते,इसलिये आपको संघकीविन तीकी आवश्यकतानहीहै, स्वयं आनाचाहिये, या आपके तपगच्छके संघको आपपर पूराभरोसा विश्वास होगा तो वो विनतीकरेगे अन्य सब नहीं करसकते.देखो- 'आनंदसागरजी धडौदेकी राजसभामै शा. स्त्रार्थ करनेको तैयारहुएथे, और मुंबई मेंभी शास्त्रार्थकरने का मंजूरकियाथा तबभीसंघकी विनतीनहीं मांगीथी,स्वयं आनेको तैयारहुए
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