________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[९१] "अभीक्षणं, पुनः पुनः पुष्टकारणाभावे, निर्विकृतिकश्च, निर्गत विकृतिपरिभोगश्च भवेत् । अनेनपरिभोगोचित्तविकृत्तिनामप्यका. रणे प्रतिषेधमाह. तथा अभीक्षणं, गमनागमनादिषु, विकृति परिभो. गेऽपि चान्ये किमित्याह-कायोत्सर्गकारीभवेत्, ईपिथिकीप्रतिक्रमणमकृत्वा नकिचिदन्यत् कुर्यादशुद्धतापत्तेरितिभावः। तथा स्वाध्याययोगे,वाचनाद्यपचार व्यापार आचामाम्लादौ पयतोऽतिशय यत्नप. रोभवेत्तथैव तस्य फलवत्वाद्विपर्यय उन्मादादि दोष प्रसंगादिति"
ऊपरके पाठमें साधुओंके उपदेशके अधिकारमें-दुध-दही-घीशकर पक्वान् वगैरह विगयोंका त्याग करनेका बतलायाहै,तथा आहार पानी-देव दर्शन या ठले-मात्रे वगैरह गमनागमनादि कार्योंसे इरियावही किये बिना कायोत्सर्गकरना,स्वाध्याय-सूत्रपाठपढना गुणना, ध्यानादि करना नहीं कल्पे, इस लिये पहिले इरियावही करके पीछे सूत्र वाचनादि कार्यों में प्रवृत्ति करे, इत्यादि.. - ११ - इस ऊपरके पाठमेभी साधुओंके गमनागमनादिकारणसे व स्वाध्यायादि करनेकेलिये इरियावहीकरनेका बतलाया है, मगर श्रावकके सामायिक करनेसंबंधी प्रथम इरियावहीकरके पीछे करेमि. भंते उच्चारण करनेका नहीं बतलायाहै,जिसपरभी पंचमहाव्रतधारी स. र्व विरति साधुओंके इरियावहीके पाठका आगे पीछेका संबंध छोड कर अधूरे पाठसे सामायिकका अर्थ करना बडी भूल है.
१२- इसी तरहसे किसी जगह पौषधसंबंधी इरियावहीके, किसी जगह उपधानसंबंधी इरियावहीके, किसीजगह साधुओंके गमनागमन संबंधी इरियावहीके,किसी जगह प्रतिक्रमण संबंधी इरिया वहीके, किसीजगह चैत्यवंदन- स्वाध्याय-ध्यानसंबंधी इरियावही. के अक्षरोंको देखकर, उन जगह के प्रसंगसंबंधी शास्त्रकारोंके अभिप्रायकोसमझेविनाही अथवा तो अपना झूठा आग्रह स्थापन करनेके लिये आवश्यक चूर्णि-वृहद्वृत्ति-लघुवृत्ति-श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति वगैरह अनेकशास्त्रपाठोंकेविरुद्ध होकर पौषधादिसंबंधी इरियावही. को सामायिक जोडकर प्रथम इरियावही पीछे कमिभंतेकेपाठका उच्चारण करनेका ठहराना सो सर्वथा प्रकारसे अज्ञानतासे या जान. बुझकरके उत्सूत्रप्ररूपणारूपही मालूम होता है.
देखिये- सामायिक प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवालोको अनेक दोषोंकी प्राप्ति होती है, सोही दिखाताहूं :
१३ - जैनाचार्योंकी शास्त्ररचना अविसंवादी पूर्वापर विरोध
For Private And Personal