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किया और दूसरों पर गेरकर मौनही कर बैठे, तथा दूरसेही फिर " अधिकमासनिर्णय " की छोटीसी किताब छपवाकर प्रकटकी. उ सके बाद थोडे रोज पीछे आप मुंबई दादर आये, तब मैंने आपको दोनों किताबों संबंधी शास्त्रार्थ करनेकी सूचना पत्र द्वारा दीथी, उ सकी नकल नीचे मुजब है:
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"श्रीदादर मध्ये श्रीमान् न्यायरत्नजी शांतिविजयजी योग्य श्री मुंबई वालकेश्वरसे मुनि मणिसागरकी तरफ से सूचना. मैंने कलरात्रिको आपके दादर आनेकासुना है, उससे आपको सूचना देता हूं, कि-आपने " पर्युषण पर्व निर्णय " और " अधिक मास निर्णय " दोनो पुस्तकौमें बहुत जगह शास्त्रविरुद्ध होकर उत्सूत्र प्ररूपणारूप लिखा है, आपने दोनों पुस्तकों में सर्वथा शास्त्रविरुद्ध और कल्पित बातोंकाही संग्रह किया है, इसलिये हम सभा में शास्त्रार्थसे आपकी दोनों पुस्त• के जिनाशाविरुद्ध सिद्ध करनेको तैयार हैं, शास्त्रार्थ किये बिना आप चले जावोगे तो झूठे समझे जायेंगे, विशेष क्या लिखु, शास्त्रार्थका विज्ञापन नं० १ आपको पहिलेभी भेज चुका हूं, कल दादर आबुंगा आप जाना नहीं. इसका उत्तर अभीही लालबाग में आदमीके साथ पीछा भेजना; मै लालबाग जाता हूं, हस्ताक्षर मुनि - मणिसागर, पौष शुदी १ रविवार, सं० १९७४." इस मुजबपत्र पौषशुदी १ को आदमी भेजकर आपको पहुंचाया और दूजके दिन खास मै और मुनिश्रीलब्धि मुनिजी, तथा अंचलगच्छीय मुनि दानसागरजी और केवलचंदजी चारोंही ठाणे दादर आये, और शास्त्रार्थ करनेका आपसे - कहा, तब आपनेभी अन्य मुनियोंकीतरह आनंदसागरजीकी आड लेकर दो महीनों बाद शास्त्रार्थ करनेका कहाथा, सो २ महीनेंकी जगह ४ महीने होगये, अब जलदी करो. आनंदसागरजी तो आडी आडी बातों से दूसरेका नाम आगे करते हैं. अपना नाम से लिखते भी डरतेहैं, तो सभा नियमानुसार क्या शास्त्रार्थ करेंगे. और आपने किताबे बनवाने में किसी आगेवानोंकी व आनंदसारगजी वगैरह मुनियोंकी आड न ली तो फिर उसका खुलासा करनेमें दूसरोंकी आड लेते हो - यही आपका अन्याय समझा जाता है, वालकेश्वर में जब हमारे गुरुजी महाराजकेसाथ आपकी मुलाकात हुई थी तब भी झगडीया वगैरह तीर्थयात्राको जाकर आये बाद शास्त्रार्थ करनेका मंजूर कियाथा, सो आप यात्राकरके आगये. अब आमने सामने या लेख - द्वारा वा सभामें आपकी इच्छाहो कैसे शास्त्रार्थ करना मंजूर करिये
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