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तरह द्वेष बुद्धिसे, छठे कल्याणककीनवीन प्ररूपणा करनेका श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजपर झूठा दोष आरोपण करतेहैं.मगर प्रत्यक्षपने आगम प्रमाणोंको उत्थापन करके मिथ्याभाषणसे त्रेवीशवी यह भी बडीभूल करके विवेकी तत्त्वज्ञ विद्वानों के सामने अपनी लघुताहोनेका कारण करतेहुए कुछभी विचारनहींकरते, यह कितनी बडी लज्जा (शर्म) की बात है. सो भी विचारने योग्य है।
औरभी एक प्रत्यक्ष प्रमाण देखिये - श्रीअंतरिक्षपार्श्वनाथजी महाराजकी यात्रा करनेकेलिये मुंबईसे संघगयाथा,उनके साथ आनंदसागरजी आदि साधुजीभीथे,सोरस्तामें संघके दर्शनकरनेकेलिये साथमेश्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाथी. उनको वहां संघ ठहरे तब तक संघ वाले मंदिरमें विराजमान करनेलगे,सो दिगंबर लोगोंने मना किया, जब उनके सामने जबराई करनेको गये. तब आपसमें मारपीट हुई,शिर-फुटे,कोर्ट कचेरीमें गये,दंडहोनेका याकैदमें जानेका मो. का आया, हजारों रुपये संघके खर्च हुए, तब साधू लोग छूटे, और आपसमें विरोधभाव बढा,तथा शासन हिलनाभी बहुत हुई,इस पर अब विचार करना चाहिये, कि--उस समय संघवाले तथा संघकेसाथ आनंदसागरजी वगैरह साधु लोगभी विवेक वाले होते, तो व्यर्थ हठकरके तकरार खडी न करते,तो इतना नुकसान कभी उठाना नहीं पडता. इसीतरहसे श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजभी व्यर्थ तकरार न होनेके लिये बुढियाका हठ देखकर वहांसे पीछे चले आये, सो तो दीर्घदृष्टिसे विवेकता पूर्वक बहुत अच्छा काम कियाथा. जिसके बदले उनको झूठे ठहरानेका दोष लगाना यह कीतनी बडी अज्ञानताहै।
और न्यातन्यातमें,गांवगांवमें,देशदेशमें,अपने २ पाडोसीपाडोसी में, पंचपंचायतमे,राजदरबारमें, या गच्छगच्छमें व अंधपरंपरारूढीकी खोटी प्रवृत्तिमें, आपलके विरोधभाव संबंधी " ऐसा पहिले कभीहुआनहीं,और अभी यह ऐसा करते हैं, सो कभी होने देगें भी नहीं" इस तरहसे कहने की एक प्रकारकी प्रचलीत रूढीहा है, उसमें सत्यासत्यकी परीक्षा किये बिना किसीको झूठा ठहराना यह सर्वथा निविवेकताहै. इसी तरहसे उन चैत्यवासीनी बुढियाने भी अपने आग्रहसे वैसा कहाथा,उसका भावार्थ समझबिनाही छठे कल्याणकको नवीन ठहराना, सोभी यह आगमोंके उत्थापनकरनेरूप तथा श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजपर झूठादोष आरोपणकरनेरूप व अज्ञानताजनक बडीभारीभूल है. इसबातकोविशेष पाठक स्वयं विचार लेंगे.
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