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भगवती सूत्र - श. १८ उ. २ कार्तिक श्रेष्ठी (सेट) - केन्द्र का पूर्वभव २६७३
चउत्थ छट्ट-ट्रुम० जाव अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाई सामाण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसे, मा० २ झोसित्ता सट्टि भत्ताई अणसणाए छेदेड़, स० २ छेदेत्ता आलोइय० जाव कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसर विमाणे उववायमभाए देवस्यणिज्जंसि जाव सक्के देविंदत्ताए उववण्णे । तए णं से सक्के देविंदे देवराया अहुणोववण्णमित्तए से सं जहा गंगदत्तस्स जाव अंत काहिह, णवरं टिई दो सागरोवमाई, सेसं तं चैव ।
* सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति
|| अट्टारसमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥
कठिन शब्दार्थ- पाउणइ - पालन करता है ।
भावार्थ - ७ - कार्तिक सेठ और एक हजार आठ वणिकों ने भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी द्वारा उपदिष्ट धर्मोपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया और भगवान् की आज्ञा के अनुसार आचरण करने लगा यावत् संयम का पालन करने लगा ।
वह कार्तिक सेठ एक हजार आठ वणिकों के साथ अनगार बन कर, ईर्यासमिति युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बना । कार्तिक अनगार ने मुनिसुव्रतस्वामी के तथारूप के स्थविरों के समीप सामायिक से प्रारम्भ कर चौदह पूर्वो तक का अध्ययन किया और बहुत-से उपवास, बेला, तेला आदि तपस्या से आत्मा को भावित करता हुआ सम्पूर्ण बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन किया । तत्पश्चात् कार्तिक अनगार ने एक मास की संलेखना द्वारा अपने शरीर को झूषित कर, सांठ भक्त अनशन का छेदन कर और आलोचना प्रतिक्रमण
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