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भगवती सूत्र-ग. १८ उ. २ कार्तिक श्रेष्ठी (सेठ)-गवेन्द्र का पूर्व भव
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पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जेणेव साइं साइं गिहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विपुलं अमण० जाव उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता मित्तणाइ० जाव तस्सेव मित्तणाइ० जाव पुरओ जेट्टपुत्ते कुडुवे ठावेंति, जेट्ट० २ ठावेत्ता तं मित्तणाइ० जाव जेट्टपुत्ते य आपुच्छंति, जेट्ट० २ आपुच्छेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहंति, दुरूहित्ता मित्तणाइ० जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सव्वड्डीए जाव रखेणं अकालपरिहीणं चेव कत्तियस्स सेहिस्स अंतियं पाउभवंति।
भावार्थ-कार्तिक सेठ के कथन को विनयपूर्वक स्वीकार कर के वे सभी वणिक अपने-अपने घर गये और विपुल अशनादि तैयार करवा कर, अपने भित्र ज्ञाति स्वजनों को बुला कर, यावत् उनके समक्ष ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा और उन मित्रादि एवं ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर, हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका में बैठ कर, मार्ग में मित्र ज्ञाति यावत् परिजनादि और ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अनुसरण किये जाते हुए यावत् सब ऋद्धि से युक्त, वादयों के घोषपूर्वक वे शीघ्र ही कार्तिक सेठ के पास उपस्थित हुए।
६-तएणं से कत्तिए सेट्ठी विपुलं असणं ४ जहा गंगदत्तो जाव मित्त-गाइ० जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेणं णेगमट्ठसहस्सेण य समणुगम्ममाणमग्गे सव्वड्डीए जाव रवेणं हथिणापुरं णयरं मन्झं. मझेणं जहा गंगदत्तो जाव आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए, जाव आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तं इच्छामि णं भंत ! णेगमट्ठसहस्सेण सद्धि सयमेव पब्बा
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