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भगवती सूत्र-श. १८ उ. २ कार्तिक श्रेष्ठी (मेठ)-शकेन्द्र का
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm जेणेव हत्थिणापुरे णयरे जेणेव सए गेहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता णेगमट्ठसहस्सं सदावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए मुणिसुव्वयस्म अरहओ अंतियं धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इन्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए । तएणं अहं देवाणुप्पिया ! संसारभयुव्विग्गे जाव पव्वयामि, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! किं करेह, किं ववसह, किं भे हियइन्छिए, किं भे सामत्थे ?' तएणं तं गमट्ठसहस्स पि त कत्तियं सेटुिं एवं वयासो-'जइ णं देवाणुप्पिया ! संसारभयुविग्गा जाव पब्वइस्संति, अम्हं देवाणुप्पिया! किं अण्णे आलंबणे वा, आहारे वा, पडिबंधे वा ? अम्हे वि णं देवाणु. प्पिया! संसारभयुब्विग्गा भीया जम्मणमरणाणं देवाणुप्पिएहिं सद्धि मुणिसुब्बयस्स अरहओ अंतियं मुंडा भवित्ता अगाराओ जाव पव्व
यामो।'
भावार्थ-कातिक सेठ उस धर्म-परिषद् से निकल कर अपने घर आया और अपने एक हजार आठ व्यापारी मित्रों को बुला कर कहा कि "हे देवानुप्रियो ! मैंने मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुना है । वह धर्म मुझे इष्ट, विशेष इष्ट
और प्रिय लगा है । हे देवानुप्रियो ! मैं उस धर्म को सुन कर संसार के भय से उद्विग्न हुआ हूँ, यावत् प्रव्रज्या लेना चाहता हूं। तुम क्या करना चाहते हो, क्या प्रवृत्ति करना चाहते हो? तुम्हें क्या इष्ट है और तुम्हारा क्या सामर्थ्य है।"
उन एक हजार आठ व्यापारियों ने कातिक सेठ से कहा-“हे देवानुप्रिय! यदि आप संसार त्याग कर प्रवज्या लेंगे, तो हमारे लिए यहां दूसरा कौनसा
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