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अध्याय १० : धर्मको झलक
खल रही है कि लड़कपनमें कितने ही अच्छे ग्रंथोंका अवन-पान न हो पाया ।
राजकोटमें मुझे सब संप्रदायोंके प्रति समानभाव रखने की शिक्षा अनायास मिली। हिंदू-धर्मके प्रत्येक संप्रदायके प्रति आदर-भाव रखना सीखा; क्योंकि माता-पिता वैष्णव-मंदिर भी जाते थे, शिवालय भी जाते व राम-मंदिर भी जाते थे और हम भाइयोंको भी ले जाते अथवा भेज देते थे। .
फिर पिताजीके पास एक-न-एक जैन धर्माचार्य अवश्य आया करते । पिताजी भिक्षा देकर उनका आदर-सत्कार भी करते । वे पिताजीके साथ धर्म तथा व्यवहार चर्चा किया करते । इसके सिवा पिताजीके मुसलमान तथा पारसी मित्र भी थे। वे अपने-अपने धर्मकी बातें सुनाया करते और पिताजी बहुत बार
आदर और अनुरागके साथ उनकी बातें सुनते । मैं पिताजीका 'नर्स ' था, इसलिए ऐमी चर्चा के समय में भी प्रायः उपस्थित रहा करता। इस सारे वायुमंडलका यह असर हुआ कि मेरे मनमें सब धर्मोके प्रति समानभाव पैदा हुआ।
हां, ईसाई-धर्म इसमें अपवाद था। उसके प्रति तो जरा अरुचि ही उत्पन्न हो गई । इसका कारण था। उस समय हाईस्कूलके एक कोने में एक ईसाई व्याख्यान दिया करते थे। वह हिंदू नेताओं और हिंदू-धर्मवालोंकी निंदा किया करते। यह मुझे सहन न होता। मैं एकाध ही बार इन व्याख्यानोंको सुननेके लिए खड़ा रहा होऊंगा, पर फिर वहां खड़ा होनेको जी न चाहा। इसी समय सुना कि एक प्रसिद्ध हिंदू ईसाई हो गये हैं। गांवमें यह चर्चा फैली हुई थी कि उन्हें जब ईसाई बनाया गया तब गो-मांस खिलाया गया और शराब पिलाई गई। उनका लिबास भी बदल दिया गया । और ईसाई होने के बाद वह सज्जन कोटपतलन और हैट लगाने लगे। यह देखकर मुझे व्यथा पहुंची। 'जिस धर्ममें जाने के लिए गो-मांस खाना पड़ता हो, शराब पीनी पड़ती हो और अपना पहनावा बदलना पड़ता हो, उसे क्या धर्म कहना चाहिए ? ' मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ। फिर तो यह भी सुना कि ईसाई हो जानेपर यह महाशय अपने पूर्वजोंके धर्मकी, रीति-रिवाजली, और देशकी भर-पेट निंदा करते फिरते हैं। इन सब बातोंसे मेरे मनमें ईसाई-धर्म के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गई। . इस प्रकार यद्यपि दूसरे धर्मोके प्रति समभाव उत्पन्न हुआ, तो भी यह नहीं कह गयाने कि ईश्वर के प्रति मेरे मनमें श्रद्धा थी। इस समय पिताजीके