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आत्म-कथा : भाग ५
सीमा थी । पूनियां खरीदकर लेनेमें मुझे संकोच हुआ । और मिलकी पूनियां लेकर कातनेमें मुझे बहुत दोष प्रतीत हुआ । अगर मिलकी पूनियां लेते हैं तो फिर सूत लेने में क्या बुराई है ? हमारे पुरखानोंके पास मिलकी पूनियां कहां थी ? किस तरह पूनियां तैयार करते होंगे ? मैंने गंगाबहनको सुझाया कि वह पूनियां बनानेवाले को ढूंढें । उन्होंने यह काम अपने सिर लिया। एक पिंजारेको ढूंढ निकाला । उसे हर महीने ३५) या इससे भी अधिक वेतनपर नियुक्त किया । उसने बालकोंको पूनी बनाना सिखलाया । मैंने रुईकी भीख मांगी। भाई यशवंतत्रसाद देशाईने रुकी गांठें पहुंचानेका काम अपने जिम्मे लिया । अब गंगाबहनने काम एकदम बढ़ा दिया। उन्होंने बुनकरोंको आबाद किया और कते हुए सूतको बनवाना शुरू किया । अब तो बीजापुरकी खादी मशहूर हो गई । दूसरी ओर अब श्रम में भी चरखा दाखिल करनेमें देर न लगी । मगनलाल गांधी ने अपनी शोधक शक्ति से चरखेमें सुधार किये और चरखे तथा तकले श्रम तैयार हुए। श्राश्रमकी खादी के पहले थानपर की गज १ - ) खर्च । मैंने मित्रोंके पास मोटी, कच्चे सूतकी खादी के एक गज टुकड़ेके वसूल किये, जो उन्होंने खुशी-खुशी दिये ।
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बंबई में मैं रोग शैय्या पर पड़ा हुआ था; लेकिन सबसे पूछा करता । वहां Satara वाली बहनें मिलीं । उन्हें एक सेर सूतपर एक रुपया दिया । मैं अभीतक खादीशास्त्र में अंधे जैसा था । मुझे तो हाथ -कता सूत चाहिए था और कातनेवाली स्त्रियां चाहिए थीं । गंगाबहन जो दर देती थीं उससे तुलना करते हुए मुझे मालूम हुआ कि मैं ठगा जा रहा हूं । वे बहन कम लेने को तैयार न थीं, इसलिए उन्हें छोड़ देना पड़ा; लेकिन उनका उपयोग तो था ही। उन्होंने श्री अवंतिकाबाई, रमाबाई कामदार, श्री शंकरलाल बैंकर की माताजी और श्री वसुमती बहनको काना सिखाया और मेरे कमरेमें चरखा गूंज उठा। अगर मैं यह कहूं कि इस यंत्रने मुझे रोगी से निरोगी बनाने में मदद पहुंचाई, तो प्रत्युक्ति न होगी । यह सच है कि यह स्थिति मानसिक है । लेकिन मनुष्यको रोगी या नीरोग बनाने में मनका हिस्सा कौन कम है ? मैंने भी चरखेको हाथ लगाया; लेकिन इस समय मैं इससे आगे नहीं बढ़ सका था ।
सब सवाल यह उठा कि यहां हाथकी पूनियां कहांसे मिलें ? श्री रेवाशंकर