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आत्म-कथा : भाग ५
कपड़े पहनने बंद किये, पाश्रमवासियोंने हाथके करघेपर देशी मिलके सूतसे वुना हुना कपड़ा पहननेका निर्णय किया। इससे हमने बहुत कुछ सीखा। भारतके जुलाहोंके जीवनका, उनकी आमदनीका, सूत प्राप्त करने में होनेवाली उनकी कठिनाइयोंका, वे उसमें किस तरह धोखा खाते थे और दिन-दिन किस तरह कर्जदार हो रहे थे, आदि बातोंका हमें पता चला। ऐसी परिस्थिति तो थी नहीं कि शीघ्र ही हम अपने कपड़े आप बुन सकें। अतः बाहरके बुननेवालोंसे हमें अपनी जरूरतके मुताबिक कपड़ा बुनवा लेना था; क्योंकि देशी मिलके सूतसे हाथबुना कपड़ा जुलाहोंके पाससे या व्यापारियोंसे शीघ्र ही नहीं मिलता था। जुलाहे अच्छा कपड़ा तो सबका-सव विलायती सूतका ही बनते थे। इसका कारण यह है कि हमारी मिलें महीन सूत नहीं कातती थीं। आज भी महीन सूत वे कम ही कातती हैं। बहुत महीन तो वह कात ही नहीं सकतीं। बड़े प्रयत्नके बाद कुछेक जुलाहे हाथ लगे, जिन्होंने देशी सूतका कपड़ा बुन देनेकी मिहरबानी की । इन जुलाहोंको आश्रमकी तरफसे यह वचन देना पड़ा था कि उनका बुना हुआ देशी सूतका कपड़ा खरीद लिया जायगा। इस तरह खास तौरपर बुनाथा कपड़ा हमने पहना और मित्रोंमें उसका प्रचार किया। हम सूत कातनेवाली मिलोंके बिना तनख्वाहके एजेंट बन गये। मिलोंके परिचयमें आनेसे उनके काम-काजका, उनकी लाचारीका हाल हमें मालूम हुआ। हमने देखा कि, मिलोंका ध्येय खुद कातकर खुद बुन लेना था। वे हाथ-करघेकी इच्छा-पूर्वक सहायक नहीं थीं; बल्कि अनिच्छापूर्वक थीं।
____ यह सब देखकर हम हाथसे कातने के लिए अधीर हो उठे। हमने देखा. कि जबतक हाथसे न कातेंगे तबतक हमारी पराधीनता बनी रहेगी। हमें यह. प्रतीति नहीं हुई कि मिलोंके एजेंट बनकर हम देश-सेवा करते हैं।
लेकिन न तो चरखा था, न कोई चरखा चलानेवाला ही था। कुकड़ियां भरनेके चरखे तो हमारे पास थे; लेकिन यह खयाल तो था ही नहीं कि उनपर सूत कत सकता है। एक बार कालीदास वकील एक महिलाको ढूंढ लाये । उन्होंने कहा कि यह कातकर बतलायेंगी। उसके पास नये कामोंको सीख लेने में प्रवीण एक आश्रमवासी भेजे गये; लेकिन हुनर हाथ न आया ।
- समय बीतने लगा। मैं अधीर हो उठा था। आश्रममें आनेवाले उन