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आत्म-कथा : भाग ५
४१ एक संवाद
जिस समय स्वदेशीके नामपर यह प्रवृत्ति शुरू हुई उस समय मिलमालिकोंकी पोरसे मेरी खूब टीका होने लगी। भाई उमर सुबानी स्वयं होशियार और सावधान मिल-मालिक थे, इसलिए वह अपने ज्ञानसे तो मुझे फायदा पहुंचाते ही थे; लेकिन साथ ही वह दूसरोंके मत भी मुझे सुनाते थे। उनमेंके एक मिलमालिककी दलीलका असर भाई उमर सुवानीपर भी पड़ा और उन्होंने मुझे उनके पास ले चलनेकी बात कही। मैंने उनकी इस बातका स्वागत किया और हम उन मिल-मालिकके पास गये। वह कहने लगे--
___यह तो आप जानते हैं न कि आपका स्वदेशी आंदोलन कोई पहला आंदोलन नहीं है ?" - मैंने जवाब दिया-- "जी हां।"
"आप यह भी जानते हैं कि बंग-भंगके दिनोंमें स्वदेशी-प्रांदोलनने खूब जोर पकड़ा था? इस आंदोलनसे हमारी मिलोंने खूब लाभ उठाया था और कपड़ेकी कीमत बढ़ा दी थी; जो काम नहीं करना चाहिए, वह भी किया था।"
" मैंने यह सब सुना है, और सुनकर दुःखी हुआ हूं।"
" मैं आपके दुःखको समझता हूं; लेकिन उसका कोई कारण नहीं है। हम परोपकारके लिए अपना व्यापार नहीं करते हैं। हमें तो नफा कमाना है। अपने मिलके भागीदारों (शेयर होल्डरों) को जवाब देना है। कीमतका आधार तो किसी चीजकी मांग है। इस नियमके खिलाफ कोई क्या कह सकता है ? बंगालियोंको यह अवश्य ही जान लेना चाहिए था कि उनके आंदोलनसे स्वदेशी कपड़ेकी कीमत जरूर ही बढ़ेगी ।"
" वे तो बेचारे मेरे समान शीघ्र ही विश्वास कर लेनेवाले ठहरे, इसलिए उन्होंने यह मान लिया था कि मिल-मालिक एकदम स्वार्थी नहीं बन जायंगे; दगा तो कभी देंगे ही नहीं, और न कभी स्वदेशीके नामपर विदेशी वस्त्र ही बेचेंगे।"
" मुझे यह मालूम था कि आप ऐसा मानते हैं इसीलिए मैंने आपको