________________
आत्म-कथा : भाग ५
उसने देख लिया कि हमारी शक्तिके अनुपातसे हमें अधिक मिला है और पागेके लिए राजनैतिक कष्टोंके निवारणका एक मार्ग हमें मिल गया है, उनके उत्साहके लिए इतना ज्ञान काफी था ।
किंतु खेड़ाकी प्रजा सत्याग्रहका स्वरूप पूरा नहीं समझ सकी थी, इसलिए उसे कैसे कडुए अनुभव हुए सो हम आगे चलकर देखेंगे ।
ऐक्यके प्रयत्न जिस समय खेड़ाका आंदोलन जारी था, उसी समय यूरोपका महासमर भी चल रहा था । उसके सिलसिलेमें वाइसरायने दिल्ली में नेताओंको बुलवाया था। मुझे भी उसमें हाजिर रहनेका आग्रह किया था। मैं यह पहले ही लिख चुका हं कि लार्ड चेम्सफोर्डके साथ मेरा मैत्री-संबंध था ।
मैंने आमंत्रण मंज़र किया और दिल्ली गया; किंतु इस सभामें शामिल होने में मुझे एक संकोच था। इसका मख्य कारण यह था कि उसमें अली भाइयों, लोकमान्य तथा दूसरे नेताओंको नहीं बुलाया गया था। उस समय अली भाई जेलमें थे। उनसे मैं एक-दो बार ही मिला था, सुना उनके बारेमें बहुत-कुछ था। उनके सेवाभाव और बहादुरीकी स्तुति सभी कोई किया करते थे। हकीम साहबके साथ भी मेरा परिचय नहीं हुआ था। स्व० प्राचार्य रुद्र और दीनबंधु एंड्रूजके मुंहसे उनकी बहुत प्रशंसा सुनी थी। कलकत्तावाले मुस्लिमलीगके अधिवेशनमें श्वेब कुरेशी और बैरिस्टर ख्वाजासे मेरी मुलाकात हुई थी। डाक्टर अंसारी और डाक्टर अब्दुर्रहमानसे भी परिचय हो चुका था। भले मुसलमानोंकी सोहबत में ढूंढ़ता रहता था और उनमें जो पवित्र तथा देशभक्त समझे जाते थे, उनके संपर्कमें आकर उनकी भावनायें जाननेकी मुझे तीव्र इच्छा रहती थी। इसलिए मुझे वे अपने समाज में जहां कहीं ले जाते, मैं बिना कोई खींच-तान कराये ही चला जाता था। यह तो मैं दक्षिण अफ्रीकामें ही समझ चुका था कि हिंदुस्तानके हिन्दू-मुसलमानोंमें सच्चा मित्राचार नहीं है। दोनोंके मनमुटावको मिटानेका एक भी मौका में यों ही जाने नहीं देता था। झूठी खुशामद