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आत्म-कथा : भाग ५
ही खातिर करनी थी।
खिलाफतके प्रश्नमें मैंने मुसलमानोंका जो साथ दिया, उसके विषयमें मित्रों और टीकाकारोंने मुझे खूब खरी-खोटी सुनाई है। इस सबका विचार करनेपर भी मैंने जो राय कायम की, जो मदद दी या दिलाई, उसके लिए मुझे जरा भी पश्चात्ताप नहीं है । न उसमें कुछ सुधार ही करना है । पीज भी ऐसा प्रश्न यदि उठ खड़ा हो तो, मुझे लगता है, मेरा आचरण उसी प्रकारका होगा।
इस तरहके विचारको लिये हुए मैं दिल्ली गया। मुसलमानोंकी इस शिकायतके बारे में मुझे वाइसरायसे चर्चा करनी ही थी। खिलाफतके प्रश्नने अभी अपना पूर्ण रूप नहीं धारण किया था ।
दिल्ली पहुंचते ही दीनबंधु एंड्रूजने एक नैतिक प्रश्न ला खड़ा किया। इस अरसेमें इटली और इंग्लैंडके बीच गुप्त-संधि-विषयक चर्चा अंग्रेजी अखबारों में आई। दीनबंधुने मुझसे उसके संबंधमें बात की और कहा, “अगर ऐसी गुप्त संधियां इंग्लैंडने किसी सरकारके साथ की हों तो फिर आप इससभामें कैसे शामिल हो कर मदद दे सकते हैं ? " मैं इस संधिके बारेमें कुछ नहीं जानता था। दीनबंधुका शब्द मेरे लिए बस था। इस कारणको पेश करके मैंने लार्ड चेम्सफोर्डको लिखा कि मुझे सभामें आनेसे उन है । उन्होंने मुझे चर्चा करनेके लिए बुलाया। उनके साथ और फिर मि० मैफीके साथ मेरी लंबी चर्चा हुई। इसका अंत यह हुआ कि मैंने सभामें जाना स्वीकार कर लिया। संक्षेपमें वाइसरायकी दलील यह थी-- “आप कुछ यह तो नहीं मानते कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल जो कुछ करे, वाइसरायको उसकी खबर होनी चाहिए ? मैं यह दावा नहीं करता कि ब्रिटिश सरकार किसी दिन भूल करती ही नहीं। यह दावा मैं ही क्या, कोई नहीं करता, मगर आप यदि यह कबूल करें कि उसका अस्तित्व' संसारके लिए लाभकारी है, उसके कारण इस देशको कुल मिलाकर लाभ ही पहुंचा है, तो या फिर आप यह नहीं कबूल करेंगे कि उसकी आपत्तिके समय उसे मदद पहुंचाना हरेक नागरिकका धर्म है । गुप्त-संधि के संबंधमें आपने अखबारोंमें जो देखा है, सो मैंने भी पढ़ा है। मैं आपको विश्वास दिला सकता हूं कि इससे अधिक कुछ भी नहीं जानता। यह भी तो आप जानते ही हैं कि अखबारोंमें कैसी गप्पें आती हैं। तो क्या आप अखबारोंमें छपी एक निंदक बातसे ऐसे समयमें सल्तनतको छोड़ सकते हैं ? लड़ाई