________________
४५०
आत्म-कथा : भाग ५
यदि नेताओंकी गैरहाजिरी के बारेमें अपना खेद प्रकट किया, लोगोंकी राजनैतिक मांगों और लड़ाई से उत्पन्न मुसलमानोंकी मांगों का उल्लेख किया । यह पत्र छापने की इजाजत मैंने वाइसराय से मांगी, जो उन्होंने खुशी से दे दी । यह पत्र शिमला भेजना था, क्योंकि सभा खत्म होते ही वाइसराय शिमला चले गये थे । वहां डाकसे पत्र भेजने में ढील होती थी । मेरे मनमें पत्र महत्त्वपूर्ण था । समय बचाने की जरूरत थी । चाहे जिसके हाथ से भेजने की इच्छा नहीं होती थी। मुझे ऐसा लगा कि अगर यह पत्र किसी पवित्र प्रादमी के हाथसे जाय तो बड़ा अच्छा है । दीनबंधु और सुशील रुद्रने रेवरेंड आयलैंड महाशयका नाम सुझाया। उन्होंने यह मंजूर किया कि पत्र पढ़ने पर अगर शुद्ध लगेगा तो ले जाऊंगा । पत्र खानगी तो था ही नहीं । उन्होंने पढ़ा, वह उन्हें पसंद आया और उसे ले जानेको राजी हो गये | मैंने दूसरे दर्जेका रेल-भाड़ा देनेकी व्यवस्था की; किंतु उन्होंने उसे लेनेसे इन्कार कर दिया और रातका सफर होनेपर भी इंटरका ही टिकट लिया । उनकी इस सादगी, सरलता, स्पष्टतापर मैं मोहित हो गया । इस प्रकार पवित्र हाथों भेजे गये पत्रका परिणाम मेरी दृष्टिसे अच्छा ही हुआ । उससे मेरा मार्ग साफ हो गया ।
1
मेरी दूसरी जिम्मेदारी रंगरूट भरती करनेकी थी । मैं यह याचना खेड़ामें न करूं तो और कहां करता ? अपने साथियोंको अगर पहले न्यौता न दू ं तो और किसे दू ं ? खेड़ा पहुंचते ही वल्लभभाई वगैराके साथ सलाह की । कितनों ही गले यह घूंट तुरत न उतरी। जिन्हें यह बात पसंद भी पड़ी, उन्हें 'कार्य की सफलता के बारेमें संदेह हुआ। फिर जिस वर्गमेंसे यह भरती करनी थी, उसके मनमें इस सरकारके प्रति कुछ भी प्रेम न था । सरकार के अफसरोंके द्वारा हुए कडुए अनुभव अभी उनके दिमागमें ताजे ही थे ।
तो भी कार्यारंभ करनेके पक्षमें सभी हो गये । कार्यका आरंभ करते ही मेरी आंखें खुल गई । मेरा आशावाद भी कुछ ढीला पड़ा । खेड़ाकी लड़ाईमें लोग खुश हो कर मुफ्त में गाड़ी देते थे, जहां एक स्वयंसेवककी जरूरत होती वहां तीन-चार मिल जाते थे । अब पैसा देनेपर भी गाड़ी दुर्लभ हो गई । किंतु इस तरह मैं कोई निराश होनेवाला जीव नहीं था । गाड़ी के बदले पैदल ही सफर करनेका निश्चय किया । रोज बीस मीलकी मंजिल तें करनी थी। जब गाड़ी